कई देशों की राजधानी में दिल्ली जैसी प्रशासनिक व्यवस्था

प्रजातांत्रिक इतिहास में भारत ने कई सांविधानिक मुद्दों पर बहस देखी है। मौलिक अधिकार बनाम नीति निर्देशक सिद्धांत। केंद्र बनाम राज्य। आज फिर से एक नई बहस और सियासत शुरू हो गई है। विभिन्न पक्ष आमने-सामने हैं। दिल्ली में केंद्रीय अधिकारियों की तैनाती और तबादले पर चर्चा गर्म है। संसद के सामने अध्यादेश विधेयक के रूप में आने वाला है। सर्विसेस यानी नौकरशाही का मामला कौन देखेगा इसका जवाब स्पष्ट होना है। सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले से केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच चल रही लड़ाई खत्म हो जाएगी? अध्यादेश को निरस्त किया जा सकता है? यह बहस सांविधानिक मुद्दों से जुड़ी हुई है। इन सब मसलों पर अमर उजाला संवाददाता नवनीत शरण ने कानून और राजनीति शास्त्र की विशेषज्ञ शुभ्रा रंजन से विशेष बातचीत की। पेश हैं प्रमुख अंश…

दिल्ली अध्यादेश- 2023 को लेकर भारत का संविधान क्या कहता है?
संविधान ने संसद को अध्यादेश लाने का अधिकार दिया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली केंद्र शासित(एनसीटी) प्रदेश है। लिहाजा सांविधानिक तौर पर एनसीटी केंद्र के अधीन है। दुनिया में कई संघीय देशों की राजधानी में भी दिल्ली जैसा ही प्रशासनिक प्रावधान है। ऐसा इसलिए भी है कि दूतावास होने की वजह से दिल्ली ग्लोबल सिक्योरिटी के लिहाज से भी शासित होती है। यहां पर कॉमनवेल्थ गेम, जी-20 जैसे सम्मेलन आयोजित होते है।
इस अध्यादेश को लेकर राजनीति के क्या मायने हैं?
भारत एक जीवंत प्रजातंत्र है। प्रजातंत्र के लिए वाद-विवाद एक अनिवार्य शर्त है। इसलिए कानून का निर्माण विवेक और विमर्श पर आधारित होता है। भले पूरा मामला राजनीतिक एजेंडे पर है, लेकिन यह देखना होगा कि क्या भारत का सांविधानिक ढांचा न्यायपालिका को संसद के विवेकाधिकार में हस्तक्षेप की अनुमति देता है। विशेषकर अनुच्छेद-122 न्यायपालिका को संसद की कार्यवाही में हस्तक्षेप पर मूलत: सीमाएं हैं।
संविधान में न्यापालिका, विधायिका और कार्यपालिका को किस तरह का अधिकार मिला है?
संविधान में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार और कर्तव्य स्पष्ट तौर पर परिभाषित है। विधायिका का काम कानून बनाना है तो न्यायपालिका (सुप्रीम कोर्ट) का काम संविधान के अनुसार कानूनों की व्याख्या व परीक्षण करना। दोनों संस्थाओं में शक्ति पृथक्करण को अनदेखा नहीं किया जा सकता। हमारे देश की व्यवस्था न तो इंग्लैंड सरीखी है और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह। इंग्लैंड में संसद सर्वोच्च है। वहीं, अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट। जबकि भारत में तीनों अपने-अपने दायरे में सर्वोच्चता रखते हैं। लोकतंत्र की मूल भावना संविधान की नैतिकता पर बल देती है। जब दायरे से बाहर जाकर काम होता है तो समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
अध्यादेश किन परिस्थितियों में सरकार लाती है?
मुद्दा यह भी है कि कार्यपालिका कभी भी अध्यादेश लाकर व दोनों सदनों से इसे पारित करा कानून बना सकती है। हालांकि, विशिष्ट परिस्थितियों का होना अनिवार्य है। यहां प्रश्न यह भी है कि प्रशासनिक मामले में न्यायपालिका का हस्तक्षेप कितना उचित है। संविधान कहता है कि जहां कानून स्पष्ट है वहां किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। जहां तक विरोध की बात है तो यह देखना होगा कि क्या विपक्ष अपनी भूमिका सार्थक रूप से निभा पा रहा है या नहीं।
नौकरशाही व्यवस्था पर इसका क्या असर पड़ेगा?
डॉ. आंबेडर ने भी कहा था कि कानून का पालन नहीं करेंगे तो व्यवस्था चरमरा जाएगी। देखने की आवश्यकता है कि नौकरशाही की तटस्थता के सिद्धांत को किस हद तक चुनौती मिलती है। कहीं यह भारत में एक बार फिर प्रतिबद्ध नौकरशाही की बहस को जन्म न दे दे।
आप सांसद संजय सिंह ने कहा राज्यसभा में गिरा देंगे बिल
आप सांसद संजय सिंह ने कहा कि राज्यसभा में दिल्ली सेवा बिल गिरा देंगे। दरअसल यह विधेयक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले, संविधान और देश के संघीय ढांचे के खिलाफ है। यह विधेयक आसांविधानिक है, क्योंकि इससे दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री के अधिकार छीने जा रहे हैं। सिंह ने कहा इंडिया गठबंधन के सभी सांसद इस बिल का विरोध करेंगे।
विधेयक पर मतदान विपक्षी एकता के दिखावे को उजागर करेगा : सचदेवा
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा ने संसद में दिल्ली सेवा विधेयक पेश किए जाने का स्वागत किया है। कहा कि इस बिल के पारित होने के बाद दिल्ली में भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। साथ ही कहा कि बिल पर मतदान विपक्षी एकता के दिखावे को उजागर करेगा। उन्होने कहा कि केजरीवाल सरकार ने न्यायालय के आदेश के बाद मिली प्रशासनिक शक्तियों का दुरुपयोग कर अफसरों को धमकाने एवं अपनी मनमानी करने की कोशिश की। सरकार ने नौकरशाहों को भर्ती नियमों का उल्लंघन करने के लिए मजबूर किया।