चुनाव आयोग के फैसले से संकट में पड़े उद्धव

मुंबई । महाराष्ट्र की सियासत में जून 2022 से शुरू हुई उथल पुथल अब तक जारी है। कभी महाविकास अघाड़ी सरकार के कप्तान बनकर राज्य की कमान संभाल चुके उद्धव ठाकरे आज अपना वजूद बचाने की जंग लड़ रहे हैं। विधायक खोने के बाद वह पार्टी का नाम (शिवसेना) और चुनाव चिह्न (तीर-कमान) भी खो चुके हैं। कहा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे को पहुंची यह क्षति राज्य में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की उम्मीदें बढ़ा सकती है।

सन 2022 में जब शिवसेना में फूट हुई, तो इसका असर उनके सियासी कद पर पड़ा। सीएम पद गंवाने के बाद महाराष्ट्र विधानसभा में उद्धव की पार्टी के विधायक घट गए। इसका नतीजा यह हुआ कि महाराष्ट्र की राजनीति में विपक्ष के नेता की उसकी भूमिका छिन गई और एनसीपी आगे निकल गई। हालांकि, कांग्रेस और राकंपा भले ही यह कह रहे हों कि आने वाले चुनाव एमवीए के तले ही लडे़ जाएंगे, लेकिन चुनाव आयोग का फैसला उद्धव की पार्टी के विस्तार की योजनाओं को झटका दे सकता है।कहा जाता है कि एमवीए के तीन बड़े दलों में संगठन स्तर पर रणनीति बनाने और कार्यक्रमों के मामले में एनसीपी सबसे आगे है। पार्टी लगातार युवाओं के बीच संपर्क बनाने का काम कर रही है। पार्टी के प्रदेश प्रमुख जयंत पाटिल ने युवाओं से कुछ घंटे एनसीपी के काम में समर्पित करने की अपील की है। पवार भी राज्य का दौरा कर रहे हैं। युवा नेता और विधायक रोहित पवार नई पीढ़ी के बीच पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं, अजित पवार सड़क से संसद तक भाजपा और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की सरकार को घेर रहे हैं।

एनसीपी जानती है कि सीएम पद हासिल करने के लिए उसे न केवल भाजपा-शिंदे का सामना करना होगा, बल्कि एमवीए का किंग भी बनना पड़ेगा। अब एक ओर जहां कांग्रेस आंतरिक कलह से जूझ रही है और शिवसेना वजूद की जंग लड़ रही है, तो पवार के लिए मौके बढ़ते नजर आ रहे हैं।

पवार के कांग्रेस छोड़ते ही एनसीपी अस्तित्व में आई थी और 1999 के विधानसभा चुनाव में दावा पेश किया था। इस चुनाव में एनसीपी ने 22.6 प्रतिशत वोट शेयर हासिल कर 58 सीटें हासिल की थीं और सीट तालिका में तीसरे नंबर पर रही थी। पहले नंबर पर 75 सीटों के साथ कांग्रेस रही जबकि 69 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर शिवसेना थी। 56 सीटों वाली भाजपा चौथे स्थान पर रही थी।

हालांकि, दो दशकों में सियासी तस्वीर पूरी तरह बदल गई। अब भाजपा शीर्ष पर है और कांग्रेस सबसे पीछे। हालांकि, शिवसेना और राकंपा दूसरे और तीसरे स्थान पर ही हैं। साथ ही शिवसेना का वोट शेयर भी 18 फीसदी के आसपास बना हुआ है। खास बात है कि पार्टी कभी भी यह आंकड़ा पार नहीं कर सकी। खास बात है कि राज्य में 55-60 सीटें ऐसी हैं, जहां इन दो दशकों के दौरान एनसीपी और शिवसेना में सीधी टक्कर होती रही है। इन सीटों पर एनसीपी को बढ़त मिलने का अर्थ है कि वह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भी उभरकर सामने आ सकती है।


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