सियासी दुर्ग में सरकार के फैसले

By: divyahimachal 

हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने ‘मंडे मीटिंग’ के एहसास को सरकार की कार्यप्रणाली का ऐसा दस्तावेज बना दिया है कि इसका असर आम नागरिक की अपेक्षाओं, जरूरतों और अनुभवों तक होता है। इसी कड़ी में लगने जा रही ‘इंतकाल अदालतें’, अपनी तरह का प्रशासनिक सुधार और लक्ष्य आधारित ऐसा कार्य है, जिसमें जवाबदेही व पारदर्शिता तय हो रही है। आपदा के दबावों से बाहर सुक्खू सरकार ने अब पुन: ठान लिया है कि प्रदेश में इसकी छवि ‘कामवाली सरकार’ बने। इसमें दो राय नहीं कि हिमाचल में सरकारें अंतत: राजनीतिक सत्ता से कहीं अधिक मुख्यमंत्रियों की अभिलाषा में जानी जाती हैं और यही कदम वर्तमान मुख्यमंत्री को ‘प्रशासनिक दृढ़ता’ का दर्जा दे रहा है। वाईएस परमार को हालांकि हिमाचल निर्माता माना गया, लेकिन पंजाब पुनर्गठन से सशक्त हुए प्रदेश में ऊपरी व निचले हिमाचल की खाई को पाटने में वह सियासत को निर्दोष साबित नहीं कर पाए। इसके बाद भी हिमाचल के मुख्यमंत्री का पद अपने दायित्व के प्रयोग में केवल वहां तक सफल रहा, जहां तक सरकार रही, लेकिन इसके प्रभाव में सभी की अपनी-अपनी पार्टियां कमजोर हो गईं। शांता कुमार एक कडक़ प्रशासक व विजनरी मुख्यमंत्री की हैसियत में पूरे देश के मानक बदलते रहे, लेकिन सियासत के सत्तू नहीं पी सके, नतीजतन दो बार उन्हें अपना अधूरा सफर छोडऩा पड़ा और तीसरी बार उनके दावे के खिलाफ पार्टी ने अपना तरीका-सलीका व चेहरा बदल लिया। भाजपा के दो बार मुख्यमंत्रित्व काल के पूरे वर्ष गुजारने के बावजूद प्रेम कुमार धूमल, भीतरी सियासत को न साध सके और न ही संतुलित कर पाए।

यकीनन वह भी बतौर मुख्यमंत्री जनता के काफी नजदीक और अपने फैसलों के मसीहा बने, लेकिन राजनीति के दुर्ग में अपनी ही पार्टी के कारण परेशान हुए। इसी पार्टी ने जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री की हैसियत में वर्चस्व और प्रश्रय दिया, लेकिन एक बार फिर भाजपा अपने ही ओहदेदार को राज्य की राजनीति में पारंगत नहीं कर सकी। यहां वीरभद्र सिंह के राजनीतिक चरित्र को भी दो अलग-अलग पहचान में देखा जाएगा। वह विकास पुरुष व प्रशासनिक अवतार की तरह एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने की चेतना में पार्टी की हर सरहद को तराशते रहे, लेकिन राजनीतिक तौर पर उनके व्यक्तित्व के टकराव महंगे पड़े। बावजूद इसके कि वह पहले चरण में शिमला केंद्रित सियासत के तहत मुख्यमंत्री की सशक्त पारी खेल पाए, अंतत: उन्हें भी अपनी राजनीति को प्रशासनिक दृष्टि देते हुए शीतकालीन प्रवास, विधानसभा का शीतकालीन सत्र, शीतकालीन राजधानी व शिमला से निचले हिमाचल में कार्यालयों का स्थानांतरण करना पड़ा। अब इसी परीक्षा को वर्तमान मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू भी आजमा रहे हैं।

प्रशासनिक तौर पर उनके अनेक फैसले काबिलेजिक्र और प्रदेश के नेतृत्व के लिहाज से महत्त्वपूर्ण कदम हैं। तीस अक्तूबर को इंतकाल अदालतें लगा कर वह भू-राजस्व विभाग के करीब 22 हजार मामलों को निपटा कर एक मील पत्थर रखेंगे। आपदा से जूझती सरकार के मुखिया के रूप में वह अग्निपरीक्षा दे चुके हैं। वह हिमाचल को ग्रीन राज्य, राज्य के आर्थिक अधिकारों तथा कांगड़ा को पर्यटन राजधानी बनाने की वकालत को अमलीजामा पहनाने की सक्रिय कोशिश कर रहे हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर वह पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों की कतार में ही खड़े हैं। फिर कहीं सरकार में सुक्खू अपराजेय हैं, लेकिन राजनीति के इतिहास में वह अपनी भूमिका को अलग नहीं कर पा रहे हैं। शिमला से सरकार को सशक्त करना आसान हो सकता है, लेकिन जो राजनीति सत्ता में लाती है, उसका तापमान कहीं और भी होता है। बेशक ‘मंडे मीटिंग’ अब मंत्रिमंडलीय बैठकों पर भारी है और जहां मुख्यमंत्री का कद, प्रभाव, प्रभुत्व, विजन और परिपाटी बोलती है, लेकिन प्रदेश की सियासत को मंत्रिमंडल की बैठक, उसमें बैठे चेहरों का असर भी देखना होता है।


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