जब सर्वोच्च न्यायालय बोला- किसी बच्चे को नहीं मार सकते, जानें पूरा मामला

नई दिल्ली: अपने 26 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की मांग कर रही एक महिला की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने साफतौर पर कहा कि वह ‘किसी बच्चे को नहीं मार सकता।’ सुप्रीम कोर्ट ने भ्रूण का तत्काल गर्भपात कराने की मांग करने वाली महिला को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए 24 घंटे का समय दिया है। साथ ही यह स्पष्ट कर दिया कि अदालत बच्चे को मारने के पक्ष में नहीं है। कोर्ट ने कहा कि हमें अजन्मे शिशु के अधिकारों और माता के अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। यह जीवित भ्रूण है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) धनंजय वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, “आज एम्स हमसे पूछ रहा है कि मिस्टर सुप्रीम कोर्ट, आप हमें भ्रूणहत्या करने के लिए कह रहे हैं… हम बच्चे को नहीं मार सकते।” यह मामला न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष उस वक्त आया जब बुधवार को दो न्यायाधीशों की पीठ ने महिला को 26-सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने के अपने नौ अक्टूबर के आदेश को वापस लेने की केंद्र की याचिका पर खंडित फैसला सुनाया था।

मुख्य न्यायधीश की पीठ में न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे। पीठ ने आगे कहा, “निस्संदेह एक महिला का प्रजनन अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सर्वोपरि होना चाहिए। लेकिन समान रूप से, हम जो कुछ भी करते हैं वह अजन्मे बच्चे के अधिकारों को संतुलित करना है क्योंकि कोई भी बच्चे के लिए (यहां अदालत में) उपस्थित नहीं हो रहा है।” कोर्ट ने आगे संकेत दिया कि एक भ्रूण को समाप्त करने का विकल्प उस मामले में इस्तेमाल किया जा सकता है जहां यह जबरन गर्भधारण का मामला हो या नाबालिग लड़की हो जिसे बच्चे को जन्म देने के परिणामों का एहसास नहीं है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि शीर्ष अदालत को एक अजन्मे बच्चे जो कि ‘जीवित और सामान्य रूप से विकसित भ्रूण’है, उसके अधिकारों को उसकी मां के निर्णय लेने की स्वायत्तता के अधिकार के साथ संतुलित करना होगा।

इसके साथ ही, प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र और महिला के वकील को उससे (याचिकाकर्ता से) गर्भावस्था को कुछ और हफ्तों तक बरकरार रखने की संभावना पर बात करने को कहा। न्यायालय ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा, ‘‘क्या आप चाहते हैं कि हम एम्स के चिकित्सकों को भ्रूण की धड़कन रोकने के लिए कहें?’’

न्यायालय सोमवार को न्यायमूर्ति हिमा कोहली और बीवी नागरत्ना की पीठ द्वारा भ्रूण के गर्भपात का निर्देश देने वाले आदेश के खिलाफ केंद्र द्वारा दायर एक आवेदन पर विचार कर रहा था। गर्भपात का प्रारंभिक आदेश 6 अक्टूबर को जारी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के मेडिकल बोर्ड की एक रिपोर्ट पर विचार करने के बाद पारित किया गया था। एम्स की रिपोर्ट में गर्भावस्था को समाप्त करने के खिलाफ सिफारिश की गई थी क्योंकि इस बात के स्पष्ट सबूत थे कि भ्रूण पूरी तरह से विकसित और सामान्य है।

केंद्र की ओर से दायर याचिका में 10 अक्टूबर के मेडिकल बोर्ड के डॉक्टरों में से एक की ताजा राय का हवाला दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए डॉक्टरों को भ्रूण के दिल की धड़कन को रोकने की आवश्यकता होगी।

मेडिकल बोर्ड की 6 अक्टूबर की राय और 10 अक्टूबर के आदेश को देखते हुए, सीजेआई की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि एकमात्र बदलाव “भ्रूणहत्या” शब्द को शामिल करना बचा था। केंद्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) ऐश्वर्या भाटी ने अदालत को बताया कि रिकॉल आवेदन दायर किया गया था क्योंकि अदालत का आदेश कानून और मेडिकल बोर्ड की राय के खिलाफ था। उन्होंने कहा, “कानून और चिकित्सा राय के खिलाफ जाना देश के लिए कठिन और अराजक होगा।” भाटी ने कहा कि याचिकाकर्ता महिला अपने जवाब में टाल-मटोल कर रही है और अगर महिला की काउंसलिंग की जाए तो अभी भी एक मौका मिल सकता है।

कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा कि क्या वह चाहते हैं कि कोर्ट बच्चे को मौत की सजा दे? इस पर उनके वकील राहुल शर्मा ने नहीं में जवाब दिया। इसके अलावा, पीठ ने दो बच्चों की 27 वर्षीय मां याचिकाकर्ता से कहा, “आप अभी जो गर्भपात की बात कर रही हैं उसके लिए आपने 26 सप्ताह तक इंतजार किया?” शर्मा ने कहा कि वह प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित थीं और पिछले एक साल से इसके लिए दवाएं ले रही थीं। इसके अलावा, वह लैक्टेशनल एमेनोरिया नामक स्थिति से भी पीड़ित थीं, जिसका अर्थ है कि दूसरे बच्चे के जन्म के बाद गर्भनिरोधक विधि के रूप में स्तनपान जारी रखने के कारण मासिक धर्म का न होना।

शर्मा ने अदालत से पूछा कि भ्रूण की व्यवहार्यता का सवाल उनके मुवक्किल से केवल इसलिए पूछा जा रहा है क्योंकि वह शादीशुदा है और अगर वह नाबालिग या अविवाहित महिला होती, तो यह कोई मुद्दा नहीं होता। पीठ ने जवाब दिया, “क्या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप शादीशुदा हैं। उस मां के बारे में क्या जो जानती है कि अगर मैं आज प्रसव कराऊंगी, तो बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम हो जाएगा।”

कोर्ट ने भाटी और याचिकाकर्ता के वकील को याचिकाकर्ता से बात करने के लिए कहा और कहा कि डॉक्टरों की राय है कि अगर वह कुछ और हफ्तों तक गर्भावस्था जारी रखती है, तो भ्रूण के जीवित रहने की बेहतर संभावना है। हालांकि, यदि बच्चा आज जीवित पैदा हुआ, तो इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि बच्चे में गंभीर शारीरिक और मानसिक विकृति होगी।

पीठ ने कहा, ”सवाल यह है कि क्या वह दो सप्ताह और इंतजार कर सकती है क्योंकि आज अगर वह बच्चे को जन्म देगी तो उसे गंभीर शारीरिक या मानसिक विकृति होगी।” पीठ ने शर्मा से पूछा, ”क्या आपका मुवक्किल बच्चे को जन्म देने का गंभीर मानसिक और शारीरिक परिणाम भुगतना चाहती है?” कोर्ट ने कहा, ऐसे विकलांग बच्चे को गोद नहीं लिया जाएगा, जिससे उसे कोई मदद नहीं मिलेगी। न्यायालय ने संकेत दिया कि वह एम्स को आठ सप्ताह के अंत में बच्चे को बाहर लाने के लिए कह सकता है और कहा, “हम उसे निर्णय लेने का विकल्प दे रहे हैं अन्यथा हम अपना निर्णय लेने में संकोच नहीं करेंगे।”

 


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