कचरा-कचरा नदी

By: divyahimachal

अंतत: अदालत को ही कहना पड़ा कि नदी-नालों में कूड़े-कचरे की डंपिंग पर पूर्ण रोक लगाएं। जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते माननीय हिमाचल हाई कोर्ट ने प्रदेश के कूड़ा कचरा प्रबंधन पर सख्त हिदायतें ही नहीं दीं, बल्कि स्थानीय निकायों के दायरे में अवैज्ञानिक डंपिंग पर कड़ा संज्ञान लिया है। यह फैसला मानव सभ्यता और जीवनशैली में आ रहे परिवर्तनों की तरफ इशारा करते हुए सरकार के दायित्व में स्थानीय निकायों के लिए जीवन की शर्तें पेश कर रहा है। बद्दी जैसे अति औद्योगिक क्षेत्र के ठोस कचरा निष्पादन संयंत्र का संचालन जिस तरह किया जा रहा है, उसे देखते हुए यह फैसला जनचेतना से भी जुड़ा है। हिमाचल में पिछले तीन दशकों में कचरा न केवल बढ़ा, बल्कि इसके साथ योजनाओं-परियोजनाओं का कचरा भी बढ़ा। लगातार शहरीकरण के सवाल पर हिमाचल की सरकारें अगंभीर रहीं और यही साहसिक कोशिश करती रहीं कि किसी तरह इस दिशा की वृद्धि दर को ढांप के रखा जाए। हैरानी यह कि न शहर उचित मानदंड से बसे और न ही गांव बचे। हिमाचल की आबादी ने शहरी तहजीब, मानसिकता, उपभोक्तावाद और आधुनिक जीवनशैली में जीना तो सीख लिया, लेकिन इस उथल पुथल ने पर्यावर्णीय खतरों को लगातार नजरअंदाज कर दिया।
शिमला के बाद 2005 में कहीं जाकर धर्मशाला दूसरा नगर निगम बना और बाद में जयराम सरकार ने तीन और शहरों के प्रबंधन को बड़े शहरों की व्याख्या दी, लेकिन ये फैसले केवल सियासी ही साबित हो रहे हैं। अगर नगर निगम क्षेत्रों में ही कूड़े कचरे के प्रबंधन को देखा जाए, तो मालूम हो जाएगा कि प्रदूषण व पर्यावरणीय खतरों की निशानियां आज भी यहां योजनाओं को कचरा कर रही हैं। प्रदेश के पास न ऐसे सर्वेक्षण हैं और न ही आंकड़े ताकि राज्य स्तरीय ढांचे में कचरा उन्मूलन हो सके। एक बार धूमल सरकार ने पॉलीथीन पर बैन लगाकर जीने की राह दिखाई थी, लेकिन यह आदर्श भी ढह गया। स्वच्छता अभियान के तहत प्रदेश के तमाम सांसदों ने डस्ट बिन तो गाड़ दिए, लेकिन इस मुहिम के शिलालेख न विकल्प बने और न ही इसके आगे कुछ हुआ। नतीजतन खड्डों व नदी-नालों के किनारे ही अब डंपिंग साइट बने हुए हैं जहां ठोस कचरे के साथ-साथ भवन निर्माण के दौरान खुदाई से पैदा हो रही सामग्री व मक फेंका जा रहा है। प्रदेश में अस्सी फीसदी कचरा खुले में फेंका जा रहा है। शहरी क्षेत्रों में भले ही कुछ योजनाएं बन रही हैं, लेकिन ग्रामीण हिमाचल तो पूरी तरह पर्यावरण के खिलाफ कूड़े के ढेर के ऊपर बैठा है। कहने को हम हरित राज्य हैं और ग्रीन एनर्जी से चलना चाहते हैं, लेकिन ठोस कचरा प्रबंधन के लिए राज्य की प्राथमिकताएं दिखाई नहीं देतीं। यही वजह है कि सरकारें जब चाहें शहरों की ग्रांट इन एड में कटौती करती रही हैं। इस बार भी सुक्खू सरकार ने नगर निगमों की ग्रांट से आधी वापस ले ली है।
जाहिर है इस का असर कूड़े के ढेर तक होगा, जहां विषैली मीथेन गैस अपने हमले से इनसानी बस्तियों को परेशान करेगी। पूरे देश में 62 मीलियन टन कचरे से अगर 43 मिलीयन टन ही एकत्रित हो पाता है, तो हिमाचल में तो इससे घातक परिस्थिति है। यह इसलिए कि हम अपने कूड़े की निजात के लिए नदी-नालों या कूहलों तक को माध्यम बना रहे हैं। आपदा के हालिया दौर ने बता दिया कि जल निकासी के मार्गों पर हमने कितना कूड़ा फंसा दिया है। माननीय अदालत के फैसले का मर्म समझते हुए प्रदेश को राज्य स्तरीय खाका बुनने से पहले टीसीपी विभाग को सक्रिय करते हुए राज्य स्तरीय योजना के पैमाने तय करने होंगे। पूरे राज्य को टीसीपी के दायरे में लाकर ही यह प्रदेश पर्यावरणीय, प्रदूषण व नव निर्माण के अंधाधुंध विस्तार के खतरों से बचेगा, अन्यथा अदालतें तो एक हद तक ही सचेत करती हुईं निर्देश देती रहेंगी। विडंबना यह भी है कि केंद्र सरकार इस तरह की फंडिंग से पीछे हट रही है। अनुसंधान, कायदे-कानून के कार्यान्वयन की परिपाटी, प्रचुर मानव संसाधन व नगर निकायों को सशक्त करने के लिए केंद्र सरकार को बड़ी भूमिका निभानी होगी।