शूरवीरता की पराकाष्ठा वालोंग युद्ध

‘अपने दुश्मन को जानने के लिए आपको अपना दुश्मन बनना होगा’- यह कथन पच्चीसों वर्ष पूर्व चीन के अजीम सैन्य रणनीतिकार तथा ‘आर्ट ऑफ वार’ किताब के लेखक ‘सुन त्जू’ का था। चीन की ‘पीपल लिबरेशन आर्मी’ अपने अजदाद सुन त्जू की उसी किताब के असूलों पर अमल करती है। सन् 1950 के दशक में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने चार मर्तबा भारत का दौरा किया था। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री भी चीन की यात्रा पर गए थे। दोनों देशों में ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ का नारा गूंज रहा था। सन् 1954 में भारत व चीन के दरम्यान हुए ‘पंचशील’ नामक समझौते के तहत एक दूसरे देश पर हमला न करने की शर्त भी शामिल थी। मगर 20 अक्तूबर 1962 की तारीख जब तोहमत की तालीम में माहिर ‘पीएलए’ ने भारत पर हमला करके हिंदी चीनी भाई-भाई के शिगूफे की हवा निकाल दी थी। ‘पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के संस्थापक ‘माओत्से तुंग’ ने सन् 1938 में एक इजलास में कहा था कि ‘सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।’

शायद हमारे हुक्मरानों ने चेयरमैन माओ के लहजे व नजरिए को संजीदगी से नहीं परखा। चंूकि लफ्जों की तमहीद बहुत कुछ बयान करती है। हर इनसान की फितरत में वफा नहीं होती। सन् 1950 में तिब्बत पर हमला करके चीन ने अपनी लाल सल्तनत के विस्तारवादी मंसूबों की तस्दीक कर दी थी। 25 अगस्त 1959 को नेफा के ‘लौगंजू’ में पीएलए ने हमला करके ‘आसाम रेजिमेंट’ के नौ जवानों को शहीद कर दिया था। 21 अक्तूबर 1959 को लद्दाख के ‘कोंगका’ में गश्त कर रहे सीआरपीएफ के दस जवान पीएलए के हमले में मारे गए थे। सन् 1962 में चीन के हमले का केंद्र लद्दाख तथा अरुणाचल प्रदेश था। साठ के दशक के उम्दा हथियारों से लैस होकर हजारों की तादाद में चीनी सैनिकों ने 21 अक्तूबर 1962 को भारत के अरुणाचल के ‘वालोंग’ सेक्टर पर हमला कर दिया था। हजारों फीट की बुलंदी पर दुर्गम क्षेत्र वालोंग में चीनी सेना को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय सेना की ‘चार डोगरा’, ‘छह कुमांऊ’, ‘चार सिख’ तथा दो व तीन ‘गोरखा’ जैसी बहादुर यूनिटें तैनात थीं। चीनी सेना के मुकाबले संसाधनों व हथियारों की भारी कमी के बावजूद भारतीय सैनिकों ने चीन के उस व्यापक हमले को चार सप्ताह तक रोके रखा था। भारतीय सैनिक आखिरी गोली, आखिरी सांस तक लड़े। दुश्मन को हलाक किया। चीनी सेना पर पलटवार के दौरान चार सिख बटालियन के 85 जवान वीरगति को प्राप्त हो गए थे। गोला बारूद खत्म होने के बाद सिपाही ‘केवल सिंह’ ‘महावीर चक्र’ ने अपनी राइफल की संगीन से चीन के आठ सैनिकों को काट कर शहादत को गले लगा लिया था। सिखों द्वारा चीनी सेना से छीनी गई राइफलें सिख रेजिमेंटल सेंटर में आज भी मौजूद हैं। वालोंग के उसी भीषण युद्ध में छह कुमांऊ ने दो सौ से अधिक चीनी सैनिकों को हलाक कर दिया था। लेफ्टिनेंट ‘विक्रम सिंह राठौर’ के नेतृत्व में छह कुमाऊं की लगभग पूरी कंपनी चीन के भयंकर हमले का सामना करते हुए बलिदान हो गई थी। छह कुमाऊं के डॉक्टर कै. बलबीर चंद चोपड़ा को युद्ध में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए ‘वीर चक्र’ से नवाजा गया था। चार डोगरा की कंपनी के एक सौ दस सैनिकों ने वालोंग की जंग में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। कांगड़ा के ‘अगोजर’ गांव के सिपाही ‘कर्मचंद कटोच’ चार डोगरा बटालियन में सेवारत थे।

16 नवंबर 1962 को चीनी सेना पर आक्रामक कार्रवाई के दौरान कर्मचंद वीरगति को प्राप्त हो गए थे। वालोंग युद्ध के दौरान कर्मचंद सहित कई सैनिकों के शव बर्फीले हिमपात की चपेट में आ गए थे। जुलाई 2010 को वालोंग क्षेत्र में सडक़ निर्माण कार्य में लगे ‘बीआरटीएफ’ के जवानों को एक सैनिक का पार्थिव शव मिला था। लड़ाई के दौरान हाथ में बांधे गए पहचान डिस्क व पे-बुक के आधार पर उस शव की शिनाख्त कर्मचंद के रूप में हुई थी। सेना ने 15 जुलाई 2010 को कर्मचंद कटोच के पार्थिव शव को 48 वर्षों बाद उनके गांव अगोजर में पहुंचा कर अंतिम संस्कार किया था। रणभूमि में शहादत सैनिकों की दास्तान-ए-शुजात की चश्मदीद गवाही है कि रणबांकुरों ने आखिरी सांस तक शिकस्त को तसलीम नहीं किया। अत: यह कहना कि आज का भारत सन् 1962 वाला नहीं है या हम युद्ध हार गए थे, ये अल्फाज उन शूरवीर सैनिकों के शौर्य पराक्रम की तौहीन होगी जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए समरभूमि में शहादत जैसे अजीम रुतबे को गले लगा लिया, मगर युद्धभूमि को नहीं छोड़ा। भारतीय सेना के जांबाजों के जोश व जज्बे में सन् 1962 में भी कोई कमी नहीं थी और न ही आज है। इसीलिए अरुणाचल व सिक्किम के क्षेत्रों पर चीन नक्शे के जरिए अपना अधिकार जताता है। भारतीय सैन्य पराक्रम के आगे पीएलए की इतनी औकात नहीं कि भारत की सरजमीं पर पांव रख सके। लेकिन भारत के सियासी नेतृत्व के ढुलमुल रवैये का खामियाजा देश के सैनिक व उनके परिवार एक मुद्दत से भुगत रहे हैं।

स्मरण रहे सन् 1962 के युद्ध की दर्दनाक दास्तान से पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ‘प्रताप सिंह कैरों’ इस कदर प्रभावित हुए थे कि उनके आग्रह पर ‘चेतन आनंद’ ने सन् 1964 में भारत-चीन युद्ध पर आधारित ‘हकीकत’ फिल्म का निर्देशन किया था। ‘कर चले हम फिदा जानो तन साथियो, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो’- हिंदोस्तान के अजीम फनकार मोहम्मद रफी द्वारा शहीदों के एहसास की शिद्दत में डूब कर गाया गया हकीकत फिल्म का यह नगमा आज भी जज्बा-ए-शहादत की तर्जुमानी करता है। बहरहाल 21 नवंबर 1962 को युद्ध विराम हुआ था। मौत को सामने देखकर भी मैदाने जंग में डटे रह कर फिदा-ए-वतन हो जाना, सैनिकों में सरफरोशी की इस तमन्ना को शूरवीरता की पराकाष्ठा कहें, वतन के लिए मोहिब्बे वतन के जज्बात या मुल्क की हशमत के लिए शहादत का जज्बा। काश हमारे बहादुर सैनिक सन् 1962 की जंग में यदि उस दौर के जदीद हथियारों से लैस होते तो शायद चीन अपने भूगोल पर अफसोस जाहिर करता। वालोंग युद्ध के शूरवीरों को देश शत्-शत् नमन करता है।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक

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