शिक्षा क्षेत्र में गुणवत्ता आज की जरूरत

शिक्षा भविष्य का निर्माण करने का प्रभावी और उपयोगी माध्यम है। शिक्षा से ही समाज का निर्माण होता है और शिक्षा से ही सांस्कृतिक, नैतिक और राजनीतिक स्तर को उच्च बनाया जा सकता है। राज्य में बच्चों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा आसानी से मिले, इसके लिए शासन ने छोटे से छोटे गांव में प्राथमिक पाठशालाएं शुरू की हैं। हिमाचल प्रदेश राज्य में प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और महाविद्यालय स्तर की शिक्षा का विस्तार हुआ है। स्वतंत्रता के समय हिमाचल में लोग अत्यंत गरीब और पिछड़े थे और उनके पास मूलभूत सुविधाएं नहीं थीं। यह वह समय था, जब हिमाचल में नाममात्र ही विद्यालय हुआ करते थे। वर्ष 1947 में जहां राज्य की साक्षरता दर मात्र आठ प्रतिशत थी, जो आजादी के बाद साल दर साल सुधर कर 1971 में 31.96 और 2001 में 76.5 प्रतिशत थी। वर्तमान में 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता दर बढक़र 82.80 प्रतिशत से अधिक हो गई है। हिमाचल की साक्षरता दर पूरे देश की साक्षरता दर से अधिक है। इतना ही नहीं हिमाचल में महिला साक्षरता दर भी 75.93 प्रतिशत है जो कि कई राज्यों की तुलना में अधिक है। इसका श्रेय प्रदेश में रही सरकारों और हिमाचल प्रदेश के मेहनतकश लोगों को जाता है। आज प्रदेश में 140 महाविद्यालय हैं।

प्रदेश में हायर एजुकेशन के लिए पांच स्टेट यूनिवर्सिटीज और एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है। इंस्टिट्यूट ऑफ नेशनल इम्पोर्टेंस में आईआईटी मंडी, एनआईटी हमीरपुर, आईआईएम सिरमौर, सीआरआई कसौली में स्थित है। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश में असंख्य प्राइवेट यूनिवर्सिटीज भी हैं। राज्य में 18028 स्कूल हैं जिनमें से 15313 सरकारी हैं। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार 12 प्राथमिक सरकारी स्कूल बिना शिक्षक के चल रहे हैं, जबकि 2969 में एक शिक्षक, 5533 में दो शिक्षक और 1779 में तीन शिक्षक हैं। इसी तरह 51 मिडिल स्कूल एक शिक्षक द्वारा, 416 दो शिक्षकों द्वारा, 773 तीन शिक्षकों द्वारा और 701 चार से छह शिक्षकों द्वारा चलाए जा रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्यूनतम 10 कक्षाओं वाला एक माध्यमिक विद्यालय दो शिक्षकों द्वारा, 10 विद्यालय तीन शिक्षकों द्वारा, 212 विद्यालय चार से छह शिक्षकों द्वारा और 710 विद्यालय सात से 10 शिक्षकों द्वारा चलाए जा रहे हैं। इस रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े प्रदेश में क्वालिटी एजुकेशन के सरकारी दावों पर सवाल खड़े करते हैं। सरकार को जिन स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या कम है, उन सभी स्कूलों को बंद करके, बच्चों को नजदीक के स्कूलों में शिफ्ट करना चाहिए। सरकार को नजदीक के स्कूल में शिफ्ट किए बच्चों को सरकारी खर्च पर बस की या हॉस्टल की सुविधा प्रदान करनी चाहिए ताकि बच्चों के अभिभावकों पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े। पिछले कुछ वर्षों में हिमाचल प्रदेश में शैक्षणिक संस्थानों की उपलब्धता में काफी वृद्धि हुई है जिसके कारण हिमाचल के लोगों के लिए शिक्षा सुगम हुई है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हिमाचल प्रदेश शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता को बना कर रख पाया है? अगर हम आज भी धरातल पर देखें तो पाएंगे कि आजादी के वर्षों बाद भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक और स्कूली शिक्षा की स्थिति दयनीय है।

राज्य के अधिकांश गांवों में अभी भी स्कूलों और कॉलेजों की कमी है, तो कई सथानों पर बिना किसी गुना-भाग के सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लिए स्कूल और कॉलेज खोल दिए गए हैं। स्कूल और कॉलेज सिर्फ ईंट और पत्थर की दीवार नहीं होती है। अगर स्कूल और कॉलेज की बिल्डिंग शरीर है तो उसमें अध्यापन कार्य करने वाले शिक्षक उस शरीर की आत्मा होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कई स्कूल बिना टीचर्स के या सिर्फ मात्र एक या दो शिक्षकों के सहारे चल रहे हैं। कहीं स्कूल भवन अच्छे हैं, तो वहां शिक्षा की व्यवस्था नहीं है। तो कहीं इमारत भी ठीक है, शिक्षक भी हैं, लेकिन विद्यार्थी नहीं हैं। इसके अलावा कुछ एक शिक्षकों का रवैया भी शिक्षा के प्रति सकारात्मक नहीं रहता। सरकारी स्कूलों में कक्षाओं का न लगना, अध्यापकों का स्कूलों में समय पर न पहुंचना, ये सब कारण स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में रोड़ा बनते हैं। आज हम देखते हैं कि एक गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चे को अपने गांव या शहर के प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पसंद करता है। जो शिक्षक सरकारी स्कूल में पढ़ाता है, वह भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल के बजाय प्राइवेट स्कूल में शिक्षा देना बेहतर समझता है। लोगों के बीच एक जनरल परसेप्शन है कि सरकारी स्कूलों में पठन-पाठन का कार्य सही ढंग से नहीं होता। अभी कुछ समय पहले हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के जनजातीय क्षेत्र पांगी के सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाले बच्चे उस समय अपने देश का नाम भी नहीं बता पाए जब भरमौर के विधायक डॉ. जनकराज वहां निरीक्षण के लिए पहुंचे।

यह कहीं न कहीं सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाता है। पिछले कुछ वर्षों से शिक्षा का स्तर धीरे-धीरे नीचे गिरता जा रहा है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण राजनेताओं ने बिजनेसमैन को स्कूल-कॉलेज खोलने की अनुमति दे दी। स्कूल खोलने की अनुमति देते समय जिन नियमों का पालन किया जाना था उनका पालन नहीं किया गया एवं स्कूल और कॉलेज गलत हाथों में चले गए। बहुत से लोगों के लिए शिक्षा मात्र एक व्यवसाय का जरिया बन गया है। अभिभावकों को कभी फीस के नाम पर तो कभी ड्रेस के नाम पर खूब लूटा जा रहा है। बहुत से प्राइवेट स्कूलों में शिक्षकों को पूरा वेतन नहीं मिलता और नौकरी के नाम पर उनका शोषण किया जाता है। बहुत से प्राइवेट स्कूल टीचर्स को हायर करते हुए बेसिक क्वालिफिकेशन को भी दरकिनार कर देते हैं। यह कहने में कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि प्राइवेट स्कूलों में क्वालिटी एजुकेशन मिल रही है, इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। इसके अतिरिक्त शिक्षा नीति तैयार करते समय हर बार राजनीतिक दबाव डाला जाता है। अयोग्य लोगों को पदों पर नियुक्त किया जाता है। आज प्रदेश में जरूरत इस बात की है कि शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए सभी उपाय किए जाएं।

रमेश धवाला

पूर्व विधायक

By: divyahimachal

 


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