फॉरेन यूनिवर्सिटीज की जरूरत क्यों

यूजीसी फॉरेन यूनिवर्सिटीज के भारतीय कैंपस और यहां उनके परिचालन से जुड़े ‘रेग्यूलेशन 2023’ लाने जा रही है। इसके पीछे अनेक तर्क दिए जा रहे हैं, जैसे कि इससे ऐसे मेधावी छात्रों को लाभ होगा जो आर्थिक तंगी के कारण प्रसिद्ध विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख नहीं कर सकते। कहते हैं कि भारत में अपना स्थानीय कैंपस स्थापित करने वाले कई विदेशी विश्वविद्यालय यहां ट्यूशन फीस में बड़ी छूट भी देंगे। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया का मेलबर्न विश्वविद्यालय, क्वींसलैंड विश्वविद्यालय, अमेरिका का टेक्सस विश्वविद्यालय, सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय और इस्टिटूटो मारांगोनी ने भारत में अपना कैंपस खोलने में रुचि दिखाई है। विदेशी विश्वविद्यालयों के भारतीय कैंपस में गरीब मेधावी छात्रों को उनकी मैरिट के आधार पर स्कॉलरशिप देने का प्रावधान किया जा रहा है। यूजीसी के मुताबिक यह रेगुलेशन अगले कुछ दिनों में जारी किए जा सकते हैं। यूजीसी के मुताबिक अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस व इंग्लैंड समेत विभिन्न राष्ट्रों के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने भारत में कैंपस स्थापित करने को लेकर अपनी रुचि दिखाई है। इसके लिए इन विश्वविद्यालयों ने कई सुझाव भी दिए हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों ने अपने सुझावों में क्लस्टर कॉलेज बनाने का सुझाव भी दिया है। यूजीसी ने बताया है कि भारत में कैंपस स्थापित करने की योजना बना रहे विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए मसौदा दिशानिर्देशों को अंतिम रूप देते समय विदेशी विश्वविद्यालयों से प्राप्त सुझावों पर भी विचार किया गया है।

यूजीसी ने इस विषय में जानकारी देते हुए बताया है कि विश्व प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी सहित विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपना कैंपस स्थापित करने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। कहा जा रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालय के भारत आने पर अनेक फायदे हो सकते हैं। इससे उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा बढ़ेगी। रिसर्च और इनोवेशन पर भी पहले के मुकाबले अधिक काम होगा। छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों व अन्य कर्मियों के लिए रोजगार के मौके भी बढ़ेंगे। इसका सबसे बड़ा लाभ उन लाखों भारतीय छात्रों को मिलेगा जो विदेशी विश्वविद्यालयों में आवेदन करते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से हर साल करीब 7-8 लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं। ऐसे में यदि विश्व के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भारत में ही कैंपस स्थापित करते हैं तो भारतीय छात्रों को स्वदेश में रहकर ही इन विश्वविद्यालयों में पढऩे का अवसर मिल सकेगा। लेकिन क्या वे देश में पढ़ाई के बाद रहेंगे, यह एक बड़ा सवाल है। यूजीसी का मानना है कि भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से न केवल डिग्री प्रोग्राम बल्कि रिसर्च को भी बड़ा बूस्ट मिलेगा। दरअसल अभी भी भारत के कई रिसर्चर व प्रोफेसर विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ संयुक्त शोध कर रहे हैं। अभी ऐसे रिसर्चर की संख्या सीमित है, लेकिन भारत में विदेशी कैंपस खुलने पर रिसर्च की संख्या में वृद्धि का अनुमान है। कहते हैं कि भारत में अपना कैंपस स्थापित करने वाले विदेशी विश्वविद्यालय केंद्र या राज्य सरकारों से अनुदान प्राप्त नहीं करेंगे। यही कारण है कि विदेशी विश्वविद्यालय की दाखिला प्रक्रिया व फीस निर्धारण में यूजीसी का सीधा दखल नहीं होगा। लेकिन इन विश्वविद्यालयों को पूरी प्रक्रिया और फीस के मामलों में पारदर्शिता रखनी होगी। उच्च शिक्षा पर हाल ही में जारी अखिल भारतीय सर्वेक्षण (एआईएसएचई 2021) के अनुसार, भारत में 43000 से अधिक कॉलेजों और 1100 से अधिक विश्वविद्यालयों में लगभग 4.14 करोड़ छात्र विभिन्न डिग्री कार्यक्रमों में पढ़ रहे हैं। इस संख्या को संदर्भ में रखने के लिए, भारत एक ऐसा देश है जहां 18 से 23 वर्ष की आयु के लगभग 15.2 करोड़ युवा नागरिक हैं। अब, संख्याओं के इस मिश्रण में, विदेश में पढ़ाई के लिए भारत छोडऩे वाले छात्रों की गिनती भी जोड़ लें। हाल ही में संसद में प्रस्तुत शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अकेले 2022 में लगभग 7.5 लाख छात्रों ने विदेश में पढऩे के लिए भारत छोड़ दिया। पिछले साल की तुलना में इस संख्या में 68 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
फिर इस संख्या को संदर्भ में रखने के लिए, किसी को यह ध्यान रखना चाहिए कि कुल छात्रों में से 2 प्रतिशत से भी कम छात्र विदेश में अध्ययन करने के लिए हर साल भारत छोड़ते हैं। हालांकि, विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाने का विचार केवल इस 2 प्रतिशत को कम करने के बारे में नहीं है। विदेश जाने वाले इनमें से अधिकांश छात्र अपनी शिक्षा का वित्तपोषण स्वयं करते हैं। यह उनके परिवारों द्वारा वहन की जाने वाली एक बड़ी लागत है। 2008 की एसोचैम की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि विदेश में पढऩे वाले छात्रों की लागत 50000 करोड़ रुपये से अधिक है। इसके विपरीत भारत में पढऩे वाले छात्रों द्वारा उच्च शिक्षा पर कुल खर्च भी लगभग 50000 करोड़ रुपये है। विदेश में पढऩे वाले एक छात्र की प्रति व्यक्ति लागत भारत में पढऩे वाले एक छात्र की प्रति व्यक्ति लागत से लगभग 100 गुना अधिक है।
स्पष्ट है कि यह लागत कम नहीं होने वाली है, चाहे कोई छात्र किसी विदेशी विश्वविद्यालय में जाए या कोई विदेशी विश्वविद्यालय छात्र के पास आए, ऐसा नहीं लगता कि इस लागत संरचना में कोई खास बदलाव आएगा। फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां आने के लिए प्रोत्साहित करना उच्च शिक्षा में निजी पूंजीवाद की पकड़ को मजबूत करना भी हो सकता है, परंतु इसके बावजूद विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस स्थापित करने के लिए लाने का मुख्य उद्देश्य भारतीय शिक्षा प्रणाली में विविधता लाना भी है, जिसकी जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। प्रस्तावित कदम से इन विश्वविद्यालयों को अपने घरेलू देशों में धन वापस भेजने में मदद मिलेगी। उन्हें अपने पाठ्यक्रमों की फीस तय करने की स्वायत्तता है, जिसका सीधा मतलब यह है कि पाठ्यक्रम महंगे हैं। देश का धन देश में रह पाएगा, इसके नियम बनाने होंगे। महंगी शिक्षा निम्न आर्थिक तबके के मेधावी छात्रों के लिए व्यवहार्यक नहीं होगी। यह भी सोचें कि ऊंची फीस देने वाले भारतीय भी भारत में सैटेलाइट यूनिवर्सिटी का विकल्प क्यों चुनना चाहेंगे? कुल मिला कर भारत को विदेशी विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा बढ़ाने की कोशिश करने से पहले अपने अंदर झांकना चाहिए और अपने वर्तमान शिक्षा परिदृश्य में सुधार करना चाहिए। नर्सरी से हाई स्कूल और फिर विश्वविद्यालय स्तर तक हमारी शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता है।
ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com
डा. वरिंद्र भाटिया
कालेज प्रिंसीपल
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