मिथकीय कथाएं इतिहास नहीं

By: divyahimachal  

आजकल ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाने की चर्चा चल रही है। यदि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद (एनसीईआरटी) की संबद्ध समिति की सिफारिश स्वीकार की गई, तो स्कूलों में ‘इतिहास’ की कक्षाओं में इन दोनों महान महाकाव्यों को पढ़ाया जाएगा। यहां कुछ सांस्कृतिक और आस्थामयी गड़बड़ हो सकती है, क्योंकि ऐसी पौराणिक कथाओं को भारतीय संस्कृति में इतिहास से भिन्न माना जाता है। इतिहास में सिकंदर-पोरस, चंद्रगुप्त मौर्य, हूण, यवन, मुगल और अंग्रेजी साम्राज्यों के विवरण भी हैं। किसने भारत पर कितने साल राज किया? किसने, कितने आक्रमण किए और देश को लूटा? साम्राज्यों के नाम और कालखंड क्या थे? युद्ध, हिंसा और हत्याओं के कितने अंतहीन दौर भारत ने देखे और झेले हैं? इतिहास उनका दस्तावेजी संकलन हो सकता है। उनके ब्योरे देते हुए इतिहासकारों की सोच और दृष्टि भी भिन्न रही है, लिहाजा तथ्यों और विश्लेषणों में भी भिन्नता और फासले हैं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ इनसे बिल्कुल अलग हैं। वे सृजनात्मक कृतियां हैं। उनके आधार पर काव्य-शास्त्र की संरचना की गई है। बेशक इन महाकाव्यों में भी कहानियां हैं। इन महाकाव्यों में भी कथाओं के अलावा, साम्राज्य और युद्ध हैं, लेकिन इनके पात्र भारत में आक्रांता के किरदारों में नहीं हैं, वे भारतीय हैं, लिहाजा दोनों महाकाव्य हमारे रोम-रोम में बसे हैं। इनमें दो मिथकीय पात्र हैं-राम और कृष्ण। वे भारत में और अन्य कई देशों में करोड़ों लोगों के आस्था-देव भी हैं। वे अवतारी हैं, लिहाजा मर्यादा पुरुषोत्तम और गिरधर हैं। दरअसल भारत का मिथकीय कथाओं और पात्रों से आस्था, अध्यात्म और संस्कृति का संबंध है। बेशक आम आदमी को ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी न हो, लेकिन वे राम और कृष्ण को ‘आराध्य’ रूप में स्वीकार करते हैं, लिहाजा ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को अच्छी तरह जानते हैं। उसके मद्देनजर स्कूली पाठ्यक्रम में इन दोनों महाकाव्यों को सारांशत: पढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है। यदि छात्रों को पढ़ाया जाए कि राम कितने स्वीकारवादी, समन्वयवादी, दलित-पिछड़ावादी महानायक थे, तो वह सार्थक होगा।

इसी तरह ‘महाभारत’ के संदर्भ में ‘गीता-उपदेश’ के ही महत्त्वपूर्ण भाष्य पढ़ाए जाएं, तो हमारी अगली पीढ़ी भारतीय संस्कृति और अतीत को गहराई से समझ सकेगी। इसी संदर्भ में हमारे पुराण, उपनिषद और चारों वेदों का सारांश अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण होगा। दुनिया इन प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करती है और अपनी भाषाओं में शोध करती है, लेकिन हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों में ये ग्रंथ गायब हैं। यदि ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को हिंदूवादी सोच और सियासत के मद्देनजर पढ़ाया जाता है, तो सत्तासीन भाजपा इतिहास के साथ कुछ भी खेल कर सकती है। बेशक इसका विरोध होगा, अंतत: ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के पठन-पाठन को कब तक रोका जा सकता है? ये दोनों महाकाव्य स्थूल और औपचारिक इतिहास से बहुत ऊपर हैं। ये घटनाएं 2500 साल से अधिक प्राचीन हैं। तब न तो कोई विदेशी आक्रांता था, न ही कोई इतिहासकार और इतिहास-लेखन था। चूंकि राम और कृष्ण ने दोनों ऐतिहासिक घटनाओं में सूत्रधार की भूमिका निभाई, लिहाजा इन मिथकीय कथाओं से हम जीवन, संबंधों, नैतिकता, सत्ता, सत्य-शुचिता आदि के बारे में सीखते रहे हैं। हम इन्हीं कथाओं में शरण भी लेते रहे हैं, उससे हमें सुरक्षा और आत्मिक राहत मिलती है। ये कथाएं हमें सहारा भी देती हैं। मिथकीय कथाएं हमें सहिष्णु बनाती हैं, लेकिन इतिहास हमें विभाजित करता है। बहरहाल, कुछ मिथकीय चेहरों का अध्ययन किया जाए, तो उन स्वतंत्रता सेनानियों की क्रांति-कथाओं को भी पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए, जिनके बलिदानों की वजह से हम स्वतंत्र हैं।


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