उत्तराखंड के लिए हुई संघर्षों का सफरनामा

देहरादून: 28 अगस्त 2000 को राष्ट्रपति ने एक विधेयक पर मुहर लगाई, ये विधेयक कोई आम विधेयक नहीं था इसे पहाड़ियों ने अपने खून से लिखा था। इस विधेयक के लिए पहाड़ के लोग करीब छह दशकों से लड़ रहा था। इस विधेयक का नाम था उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक।

सन 2000 से पहले की जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था जब आजादी के बाद जब धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश का विकास होना शुरु हुआ था। तो यहां का पहाड़ी आंचल इस विकास से वंचित रह गया। इस पहाड़ी इलाके का रहन-सहन बोली भाषा सब उत्तर प्रदेश से अलग थी। जिस वजह से यहां के आंचल से पांच मई 1938 के दिन अलग राज्य के गठन की मांग उठी।
मांग ने देखते ही देखते ले लिया आंदोलन का रूप
देखते ही देखते इस मांग ने एक आंदोलन का रुप ले लिया। नए-नए दल कमेटी और संगठन, इसके समर्थन में बनने लगे। इस संघर्ष के दौरान एक वक्त ऐसा भी आया कि राज्य की मांग करने के लिए चलाया गया ये आंदोलन कब एक हिंसक आंदोलन बन गया किसी को पता ही नहीं चला। इस आंदोलन के दौरान पुलिस ने आंदोलनकारियों के साथ इतनी बर्बरता की जिसे आज तक उत्तराखंड नहीं भूल पाया है।
खटीमा गोलीकांड जिसे आज तक कोई भूल नहीं पाया
एक सितंबर 1994 राज्य गठन की मांग को लेकर खटिमा में भूतपूर्व सैनिक, छात्र और व्यापारी जुलूस निकाल रहे थे। लेकिन तभी अचानक पुलिस इंस्पेक्टर डी.के.केन ने वहां खुलेआम गोलियां चलाना शुरू कर दिया। इसमें सात आंदोलनकारियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। खटीमा गोलीकांड की खबर ने पूरे पहाड़ को हिला कर रख दिया। सत्ता सोच रही थी कि इस गोली कांड से लोगों की आवाजें दब जाएंगी, लोगों का जज्बा कम हो जाएगा लेकिन हुआ इससे उलट। इस गोली कांड ने लोगों की आवाज दबाने के बजाए इसकी गूंज और तेज कर दी।
मसूरी गोलीकांड में 21 लोगों की गई जान
अभी खटीमा गोलीकांड में चलाई गई गोलियों की गूंज लोगों के कानों से गई नहीं थी कि इसके अगले ही दिन यानी कि 2 सितंबर 1994 को मसूरी पुलिस ने भी अपनी अमानवीयता का प्रदर्शन खुलेआम किया। मसूरी में खटीमा गोलीकांड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने आकर अकारण ही गोलियां बरसाना शुरु कर दिया। इस आंधाधुंध फायरिंग ने लगभग 21 लोगों की जान उसी जगह पर ले ली और चार आंनदोलनकारियों की अस्पताल में मौत हो गई।

जब पहाड़ की बहन बेटियों की अस्मिता से हुआ खिलवाड़
मसूरी और खटीमा कांड के एक महीने के बाद जो बर्बरता पहाड़ के लोगों, पहाड़ की बहन-बेटियों के साथ हुई उसे आज तक कोई भूल नहीं पाया। 2 अक्तूबर 1994 आंदोलनकारी कोदा झंगोरा खाएंगे अपना उत्तराखंड बनाएंगे का नारा लगाते हुए दिल्ली की ओर जा रहे थे। तब प्रशासन द्वारा नारसन बार्डर पर नाकाबंदी की गई। लेकिन उस वक्त आंदोलनकारियों के आगे प्रशासन की नहीं चल पाई और प्रशासन ने बेबस होकर आंदोलनकारियों को आगे जाने दिया।

जब आंदोलनकारियों का काफिला रामपुर तिराहे पर पहुंचा तो वहां सारा प्रशासन पूरी तैयारी के साथ मौजूद था। रात के अंधेरे में आंदोलनकारियों को घेर लिया गया। पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। यहां तक की महिलाओं के साथ दुष्कर्म तक किया गया। आपको बता दें उस समय उत्तरप्रदेश की सत्ता में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और ये पहले ही तय कर लिया गया था कि आंदोलनकारियों को आगे नहीं जाने देंगे। रामपुर तिराहे के इस गोलीकांड में राज्य के 7 आन्दोलनकारी शहीद हो गए। इसके बाद अलग राज्य की मांग और भी तेज हो गई।
देहरादून और कोटद्वार गोलीकांड
3 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर कांड की सूचना देहरादून पहुंची। इस सूचना ने पहाड़ से सीधे-साधे लोगों को अंदर तक झकझोर कर रख दिया था। इसके साथ ही इस घटना ने लोगों के अंदर भड़की आग में घी का काम किया। इसी बीच मुजफ्फरनगर के काण्ड में शहीद स्व रविन्द्र सिंह रावत की शवयात्रा निकाली जा रही थी।
तभी वहां पर पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया। जिसके बाद स्थिति और उग्र हो गई और लोगों ने पूरे देहरादून में इसके विरोध में प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन के लिए प्रशासन पहले से ही तैयार बैठा था। जैसे ही देहरादून में प्रदर्शन शुरू हुआ प्रशासन ने इन आंदोलनकारियों पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। देहरादून के इस गोलीकांड में तीन लोग शहीद हो गए।

3 अक्तूबर 1994 को पूरा उत्तराखंड मुजफ्फरनगर कांड के विरोध की आग में जल रहा था और प्रशासन इस आग के दमन के लिए पूरी तैयारी के साथ खड़ा हुआ था। इसी कड़ी में कोटद्वार में भी एक आंदोलन हुआ जिसमें दो आंदोलनकारियों को पुलिस कर्मियों ने राइफल के बटों और डंडों से पीट-पीटकर मार डाला।
नैनीताल गोलीकांड
नैनीताल में भी विरोध चरम पर था लेकिन इसका नेतृत्व पहाड़ के बुद्धिजीवियों के हाथ में होने की वजह से प्रशासन ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहा था। तभी पुलिस प्रशासन को एक दिन मौका मिला और नैनीताल में चल रहे विरोध प्रदर्शन की भड़ास उन्होंने प्रशान्त होटल में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर निकाली। आर.ए.एफ के सिपाहियों ने प्रताप सिंह को होटल से खींच कर बहार निकाला। जब ये बचने के लिए मेघदूत होटल की तरफ भागे तो प्रशासन ने इनकी गर्दन में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।

श्रीयंत्र टापू आंदोलन
उत्तरप्रदेश की तत्कालीन सरकार का अत्याचार यहीं नहीं रुका। नैनीताल के बाद अब बारी थी श्रीयंत्र टापू की गढ़वाल की राजधानी कहे जाने वाले पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर की। यहां 10 नवंबर 1995 को श्रीयंत्र टापू पर शांतिप्रिय ढंग से पृथक राज्य के लिए आमरण अनशन चल रहा था उस वक्त उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन भी लगा हुआ था।
तभी पुलिस ने यहां आकर अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया। पुलिस ने बड़ी ही बर्बरता के धरना प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारियों को कुचलना शुरू कर दिया। इससे भी उनका मन नहीं भरा तो उन्होंने अमानवीय ढंग से आंदोलनकारियों को पीटते हुए नीचे बहती अलकनंदा में फेंक दिया।

जिसके बाद उनके ऊपर पत्थरों की बरसात की गई। जिससे आंदोलन कर रहे दो व्यक्तियों की मौत हो गयी। इसके साथ ही कई लोगों को गंभीर चोटें भी आई। इसके बाद पुलिस ने 55 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर सहरानपुर जेल में ठूस दिया।