हिमाचल की शिक्षा दृष्टि

By: divyahimachal

शिक्षा अपनी साधना और जटिलता से बाहर अब प्रदर्शन की कवायद में सरकारी पैमानों की जिद्द बन चुकी है। हिमाचल के संदर्भ में शिक्षा हमेशा से देश के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण पेश करती आई है और यही वजह थी जब नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने यहां की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली को एक रोल मॉडल माना। बेशक मात्रात्मक दृष्टि से हिमाचल में शिक्षा के पैगाम और इसकी निकटता दूर दराज इलाकों तक पहुंची, लेकिन बेहतर ढांचे के बावजूद अभिभावकों की तलाश नित नए निजी संस्थानों के करीब पहुंच जाती है। बात सिर्फ टाई, यूनिफार्म या इंग्लिश मीडियम की नहीं, बल्कि ऐसे पाठ्यक्रम की तलाश है जो या तो सीबीएसई या आईसीएसई के मार्फत पूरी होती है या बाहरी राज्यों की तरफ निकल पड़ती है। यानी कुछ तो हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम से शिकायत है, वरना निजी स्कूलों में भी अव्वल वही हंै जो इससे इतर अपना पंजीकरण करवा रहे हैं। एक बार फिर सरकारी स्कूलों की काबिलीयत में रंग भरने का काम सुक्खू सरकार करने जा रही है। प्राइमरी शिक्षा के उत्थान में इंग्लिश का प्रादुर्भाव हो रहा है, जबकि बच्चों की वैज्ञानिक सोच बढ़ाने के लिए साइंस और गणित भी पहली कक्षा से पाठ्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं। इतना ही नहीं एक्सपोजर विजिट के लिए शिक्षकों को विदेश के अनुभव से पारंगत किया जाएगा। सरकार पहले ही राजीव गांधी डे बोर्डिंग स्कूलों के माध्यम से हर विधानसभा क्षेत्र में शिक्षा के गुणात्मक फलक का विस्तार करने के लिए प्रयत्नशील है। शिक्षा के नए दौर में करियर का प्रतिभा तक पहुंचना एक अलग तरह की चुनौती है क्योंकि भविष्य अब सिर्फ किसी पाठ्यक्रम की परिपाटी नहीं, बल्कि ज्ञान और हुनर का मिलन है। यह उस पहचान का नजरिया भी है जो बच्चों के भीतर मानसिक संतोष और महत्त्वाकांक्षा का सम्मेलन करवाता है। यानी डिग्री तो अब एक आधार है, जबकि करियर और व्यवसाय के लिए एक खास तरह की परवरिश की जरूरत है। हिमाचल के ही कई बच्चे गीत-संगीत, कला, नृत्य, नए उद्योग-धंधों और हुनर की नई मंजिलों पर चलते हुए सफल हो रहे हैं।
ऐसे में व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर अब तक हुए प्रयासों का भी विश£ेषण होना चाहिए। कभी जूनियर आईटीआई तक की पढ़ाई से ही युवा इतने प्रोत्साहित व सक्षम हो जाते थे कि जिंदगी के लिए एक सफल व्यावसायिक दृष्टि और कर्म हासिल कर लेते थे। आज भी हिमाचल में उपलब्ध रोजगार अवसरों का फायदा बाहरी राज्यों के लोग उठा रहे हैं। शिक्षा के अपने उद्देश्य भले ही उपलब्धि बन जाएं, लेकिन हिमाचल की आर्थिक गतिविधियों की क्षमता में नए पाठ्यक्रम निरूपित होने चाहिएं। प्रदेश में 22 लाख पंजीकृत वाहनों के अलावा बाहरी आवागमन जोड़ लें तो लगभग पचास लाख गाडिय़ां और इनसे जुड़े व्यवसाय यहां चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन इनकी क्षमता में पैदा हुआ रोजगार हिमाचली बच्चों व युवाओं को प्रेरित नहीं कर पा रहा। ऐसे में स्कूली शिक्षा के प्रयोग भले ही भाषा, विज्ञान और गणित को परिमार्जित करें, लेकिन वहां ऐसी कार्यशालाओं की जरूरत है जहां फर्नीचर का काम, गीत-संगीत की शिक्षा, नृत्य की व्याख्या, ऑटो उद्योग से रोजगार के रिश्ते तथा पर्यटन से संबंधित ज्ञान व प्रशिक्षण अगर उभारा जाए, तो शिक्षा की पृष्ठभूमि में करियर के नक्शे स्पष्टता के साथ उभर आएंगे। हिमाचल की शिक्षा दृष्टि में ऐसा हर पहलू समाहित करना होगा, जो आगे चलकर युवाओं की शक्ति से स्वरोजगार का रास्ता अख्तियार करे। हिमाचल के स्कूलों के भ्रमण तथा कार्यशाला जिस दिन मिट्टी, आबोहवा, लोक कलाओं और बोलियों के साथ जुड़ गई, उस दिन ऐसी खूबियां सामने आएंगी जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में करियर की उड़ान को मुकम्मल करेंगी। इतना ही नहीं कुछ और स्कूलों को डिनोटिफाई करके तथा शहरी स्कूलों के सदुपयोग के लिए प्राइवेट पार्टनरशिप में शिक्षा के लक्ष्यों को सफल करने की नीति बनानी होगी। कई शहरी स्कूल अगर सीबीएसई तथा आईसीएसई पाठ्यक्रम से जोड़ दिए जाएं, तो विदेश से प्रशिक्षण प्राप्त सरकारी अध्यापक इन्हें सर्वोच्च शिक्षण संस्थान बना सकते हैं। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि सरकारी अध्यापकों का अधिकतम समय शिक्षा प्रणाली, अध्ययन व अध्यापन की कार्यशाला में ही गुजरे ताकि नवाचार का नया दौर विकसित हो सके।