शिक्षा और परोपकार

बिन विद्या नर पशु समान। न जाने कितने बरसों से सुनते आ रहे हैं। देश आजाद हुआ तो शिक्षा क्रांति की घोषणा कर दी गई थी। अब इस अशिक्षित भीड़ भरे देश में कोई पढ़े-लिखे बिना नहीं रहेगा। पढ़ाई का प्रमाणपत्र, डिग्रियां हर बच्चे के हाथ में होंगी। वे नौकरी के लिए कतार लगा बरसों इन्तजार नहीं करेंगे। रोजगार दफ्तरों की धूल फांक-फांक कर आखिर उनके चक्कर लगाना बंद नहीं कर देंगे। हालात कुछ इस कद्र हो जाएंगे कि नौजवान पढ़-लिख कर इनके चक्कर लगाने के बजाय ठेके पर विदेश भिजवाने के संदिग्ध दफ्तरों के बाहर चक्कर लगाना शुरू कर देंगे। फिर भी कोई नहीं पूछता कि इतने लोग रोजी रोटी की तलाश में अपना देश छोड़ कर दूसरे देश कैसे पहुंच गए? अवैध रूप से वहां पहुंचे लोग नम्बर दो के असामान्य प्रवासियों के रूप में जीवन जीने के लिए तैयार हैं, लेकिन अपने देश में अव्वल दर्जे का नागरिक बन जाने के लिए प्रस्तुत नहीं। क्योंकि वहां अव्वल दर्जे का नागरिक बन कर जीने का अर्थ है, रोजगार मेलों में नौकरी मांगने के लिए भटकते रहना, फिर हास्यास्पद वेतन पर काम करने के लिए हामी भरना। मनरेगा के नाम पर ऐसी दिहाडिय़ों को सिर माथे पर लेना जो इन्हें नौकरी करते हुए भी भुखमरी की सौगात दे सकें। नहीं तो भला बताइए देश की तरक्की के निरन्तर दावों के बीच देश भुखमरी सूचकांक में कुछ पायदान नीचे क्यों उतर गया? जो भूख से मरे उनमें पढ़े-लिखे कितने थे, और अनपढ़ कितने? भूख से आई मौत तो शिक्षित अशिक्षित का अन्तर नहीं करती। पढ़ा-लिखा काम करने को न जाने कब से तैयार बैठा है, और सरकारी तौर पर उसे पकौड़े बेचने की सलाह दी जा रही है। विद्या मंदिर, जिन्हें शिक्षालय कहा जाता है, जहां सरस्वती की पूजा होनी चाहिए, वहां पूजक नदारद होते जा रहे हैं।

उनके इर्द-गिर्द आईलैट्स अकादमियां कुकुरमुत्तों की तरह उग आई हैं। वहां पढऩे वालों की नहीं विदेश भाग सकने वालों की भीड़ लगी है। ऐसे विशेषज्ञ मिल जाते हैं, जो बताते हैं कि मान्य पलायन के लिए अपेक्षित बैंड न भी मिले तो भी उन्हें परदेस भिजवा दिया जाएगा। यह दीगर बात है कि चाहोगे अमरीका या विलायत जाना, और पहुंचोगे अरब और अफ्रीकी देशों में। चांद सितारों को छूती अटारियां पाने की तमन्ना के साथ विदेश पलायन की होड़ लगायी थी, अब यहां पहुंचे तो छुप-छुप कर जीना पड़ता है। आखिर यहां भी तो सेना क्षेत्रों के नाम पर क्रीत दासों की जरूरत पड़ती रहती है, अत: स्वागत। वहां पहुंच गए तो पीआर से लेकर ग्रीन कार्ड की जरूरत पड़ती रहेगी। जो अपना आधार कार्ड न कर सके, शायद वे ग्रीन कार्ड कर सकें। उम्मीद रखो। और इधर यह देश जो युवाशक्ति का देश है, वहां किंकत्र्तव्य-विमूढ़ अपने नौजवान हैं। मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘उनके राज्य की सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि अब यहां नौकरी पाने के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ती’ और विश्व का भ्रष्टाचार सूचकांक बताता है कि भारत का भ्रष्टाचार सूचकांक चारों खाने चित्त है। भ्रष्टाचार उन्मूलन के ऊंचे नारों के बावजूद आज भी वह उसी निम्नतम स्तर पर खड़ा है, जैसे कल खड़ा था, बल्कि अब तो यह हालत हो गई है कि देश में कोई काम केवल सम्पर्क के बल पर नहीं होता। काम कर सकने वालों की हथेली गर्म करनी ही पड़ती है, क्योंकि महंगाई बहुत हो गई है, और केवल वेतन में किसी का गुजारा नहीं होता। इधर नौनिहालों को आदमी बना सकने वाली शिक्षा क्रांति मुंह बिसूर कर निराश बैठी है। महामारी ने निजी शिक्षा संस्थानों के बखिये उधेड़ दिये। अब महामारी दबी, स्कूल खुलने लगे, तो भारत का भविष्य छात्र-छात्राएं सस्ते सरकारी स्कूलों की ओर भागे। यहां अधिकांश प्राथमिक स्कूल आज भी वृक्षों के साये तले नामालूम इमारतों में लगते हैं। यहां इमारतें हैं भी तो उनके बखिये कुछ इस प्रकार उधड़ गये हैं कि छात्रों को लगता है कि यह छत हमारे सिर पर अभी गिरी कि गिरी।
सुरेश सेठ
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By: divyahimachal