संविधान दिवस विशेष : भारत के प्राण भारतीय संविधान

हर भारतीय को अपने कत्र्तव्यों को निभाना होगा…

किसी भी देश व समाज के संतुलित विकास में उस देश के नियम व कानून बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत में इन कानूनों-नियमों का शासन शास्त्र संविधान कहलाता है। शासन प्रशासन की शक्तियों का स्त्रोत हमारा भारतीय संविधान अपने आप में एक विशेष आयाम रखता है जिस आधार पर ही यह विश्व का सबसे लम्बा व विस्तृत संविधान होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय संविधान निर्माण की गाथा ऐतिहासिक रही है। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो नीति निर्माताओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती देश को संचालित करने के लिए अपने कानून, नियमों का होना था जिसकी पूर्ति के लिए संविधान सभा का गठन हुआ जोकि देश के प्रत्येक क्षेत्र की प्रतिनिधि थी। भारतीय संविधान की रचना भी कोई एक दिन की कहानी नहीं है, बल्कि कई वर्षों के अथक प्रयासों का सम्मिलित रूप है। आज की पीढ़ी को सब कुछ थाली में सजा-परोसा मिलता है न, इसीलिए उसे इसकी कीमत पता नहीं है। हमारे देश ने करीब साढ़े तीन सौ सालों तक केवल ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी झेली है। यह समय कितना असहनीय और पीड़ादायी रहा है, यह हमारे लिए कल्पना के भी परे है। हम सभी बेहद भाग्यशाली हैं, जो हमने स्वतंत्र भारत में जन्म लिया। हम कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी आ-जा सकते हैं। कुछ भी बोल सकते हैं। जरा सोचिए, कितना हृदय विदारक होता होगा, जब आपको बात-बात पर यातनाएं दी जाती हों। भारत ने कभी गुलामी स्वीकार नहीं की, बल्कि सदैव संघर्ष किया तथा 1947 में अंग्रेजों को भगाया और देश के कुशल संचालन की चिंता चिंतन में परिवर्तित हुई तथा संविधान सभा ने संविधान को 26 नवम्बर 1949 को पारित किया तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ।
यह दिन भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है, जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। दो वर्ष, 11 महीने व 18 दिन तक चले रचना कार्य में निर्माताओं ने एक ऐसा कानूनी दस्तावेज तैयार किया जो वर्तमान की स्थिति, भविष्य की योजना व पूर्व के इतिहास को एक साथ लेकर आगे बढ़ा और आज पूरे विश्व के लिए एक आदर्श मिसाल प्रस्तुत करता है। वर्तमान काल में चिंतन का विषय आ जाता है कि क्या ‘शासन का शास्त्र’ सही मायने में बन भी पाया है हमारा संविधान, या वास्तविकता कुछ और ही है। वैसे किसी भी राष्ट्र का सबसे पवित्र ग्रंथ उस देश का संविधान होता है, लेकिन भारत में अधिकांश लोगों को संविधान का सार यानी प्रस्तावना तक का एक भी अंश किसी को याद नहीं होगा। लोगों को समझना होगा कि भारत के संविधान का जब निर्माण हुआ था तो यह भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विरासत और समाज तथा परिस्थितियों का एक प्रतिबिंब था। इसका अनुसरण करके हम भारत को समझ सकते थे। हमें यह शासन शास्त्र ऐसे ही विरासत में नहीं मिला है। इसका एक-एक नियम, अधिकार, कत्र्तव्य, निर्देशक सिद्धांत, उपबंध व सभी व्यवस्थाएं कड़े संघर्ष के पश्चात हमें प्राप्त हुए हैं और विकट परिस्थितियों के बीच प्राप्त हुए हैं, लेकिन आज यह भारत का कानून है। देश का कोई भी व्यक्ति इस शासन शास्त्र से उच्च नहीं है और न कभी हो सकता है। यही बात तो हमारे संविधान को जीवंत बना देती है। हमारा संविधान इसलिए भी जीवंत है क्योंकि भारत की प्रत्येक स्थिति व परिस्थिति के अनुसार इसमें उपबंध शामिल हैं जो प्रत्येक अनुकूल व प्रतिकूल स्थिति के अनुसार ढल जाते हैं। भारत के संविधान पर भले ही अन्य विदेशों के संविधानों का थोड़ा या ज्यादा प्रभाव जरूर पड़ा हो, लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि हमारे संविधान पर हमारी पुरातन भारतीय संस्कृति की अमिट छाप है। इसे हम सब ने आत्मार्पित किया है। जिस विषय की बात करेंगे वो हर विषय नियमों के रूप में हमारे संविधान में शामिल है।
भारतीय संविधान में नागरिकों के लिए मूल अधिकार व कत्र्तव्य शामिल हैं, लेकिन प्रश्नचिन्ह यहीं आकर लग जाता है कि अधिकारों के लिए तो सब कानूनी व संविधानवादी बन जाते हैं, पर जब बात कत्र्तव्यों की आती है तो ये संविधानवादी सोच वाले लोग कहां विलुप्त हो जाते हैं। बात अधिकारों की करें तो अधिकारों में भी माना अभिव्यक्ति का अधिकार है, ठीक है, लेकिन अभिव्यक्ति के नाम पर जब ‘देश तेरे टुकड़े होंगे’ व ‘हमें चाहिए आजादी’ जैसे नारे लगते हैं, तो ऐसी अभिव्यक्ति के लिए क्या कहा जाए, क्या यही है स्वतंत्रता का ढोल पीटने वालों की अभिव्यक्ति की आजादी? चिंतन के विषय में बात समानता की भी है। एक तरफ सभी को समान अधिकार व अवसर की समता जैसे अधिकार हैं, लेकिन 75 सालों की आजादी के बाद भी देश का लगभग एक बड़ा वर्ग रात को बिना अन्न खाए सोता है। यदि समानता का अधिकार है, तो देश के प्रत्येक व्यक्ति को यह समानता मिलनी चाहिए। एक तरफ धर्मनिरपेक्ष होने की बात कही जाती है तो दूसरी ओर धर्म के आधार पर सभी राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकते हंै। संविधान में डॉ. भीमराव अंबेडकर जी ने पिछड़ा वर्गों के उत्थान व विकास के लिए आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण विषयों को शामिल किया था, लेकिन साथ में यह भी कहा था कि दस वर्ष के पश्चात अवलोकन करके इसकी समीक्षा करके इसे हटा सकते हैं।
इधर हटाने की बात तो दूर, बल्कि आरक्षण पर राजनीति करके नेताओं ने कई सरकारें बना ली और कई नए बनाने की आस में हैं। क्या यही सामाजिक न्याय है? शिक्षा हरेक व्यक्ति को उपलब्ध करवाने की बात कही गई, लेकिन सरकारी संस्थाओं में ही फीस इतनी है कि मानो लगता है अनपढ़ रहना ही ठीक है। शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है जोकि दुख का विषय है। शिक्षा गरीब लोगों से दूर होती जा रही है। भारतीय संविधान में प्रत्येक विषय को शामिल करके संविधान निर्माताओं ने एक बेहतरीन शासन शास्त्र तैयार किया था, मगर आज देश में सब कुछ बंट गया है। और तो और, रंगों का भी बंटवारा हो गया है, लाल किसी का है तो हरा किसी का, तो सफेद किसी का हो गया है। जानवर बांट दिए गए हैं। मतलब जो ज्ञान व शिक्षा सभी में बंटनी चाहिए थी उसको छोड़ कर सब कुछ बंट चुका है। कहने को तो कई ‘लोकतंत्र को भी खतरे’ में बता देते हैं, मगर इतना ज्ञान न जाने ऐसे लोग कहां से लाते हैं, यह नहीं बता पाते कि खतरा हमसे स्वयं से ही है। देश में ऐसा लगता है मानो देश का ‘गैंगीकरण’ सा हो गया हो। देश में रहकर देश के विरोध में बोलकर न जाने क्या हासिल कर जाती हैं ऐसी गैंगें, इन्हीं गैंगों का शिकार हो रहा है हमारा भारत देश। हर भारतीय को अपने कत्र्तव्यों को निभाना होगा, तभी देश का विकास संभव हो पाएगा।
प्रो. मनोज डोगरा
शिक्षाविद