झूला झूलें पिंग लाल

देश में आजकल बारहमासी सावन के जिन झूलों का रिवाज है, उनमें रस्सी भी चीन की है और पटरा भी। लेकिन मुझे इस बात की पूरी तसल्ली है कि कम से कम पेड़ मेड इन इण्डिया हैं। जब तक देश में दरख्त हैं, तब तक हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हम न सिर्फ मेक इन इण्डिया का आवाह्न करते हैं बल्कि अपने देश में पेड़ भी बनाते हैं और उन पर झूले भी डालते हैं। पर दु:ख है तो केवल इस बात का कि इन झूलों पर चीन झूल रहा है और हमें कहना पड़ रहा है कि ‘झूला झूलें पिंग लाल (शी जिनपिंग)’। जिनके हाथ में झूलों की रस्सियाँ हैं, वे शी जिनपिंग को गलबहियाँ डालने के बाद उसके साथ झूला झूलते हैं और बेचारा विकास ज़मीन पर पड़ा दर्द से बिलबिलाता रहता है। झूले की रस्सी थामने वाले ने साबरमती में जिनपिंग को चीन में बने स्टेंड, रस्सी और पटरे पर झूला झुलवाया था। जिनपिंग मेड इन इण्डिया पेड़ देखकर नाराज़ न हो जाएं, इसलिए झूले को पेड़ पर भी नहीं डलवाया गया। सच्ची दोस्ती की यही निशानी है कि जिसके साथ की जाए, उसे पूरी शिद्दत से निभाया जाए। देश का क्या, वह तो चीन में बनी रस्सी, पटरे और स्टेंड की तरह कहीं भी बनाया जा सकता है। वैसे भी जब चीन ने लद्दाख और अरुणाचल में अपने तम्बू तानने के बाद गाँव बसा ही लिए हैं तो उसे देश के बाक़ी हिस्सों में पहुँचने से भला कौन रोक सकता है। हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर अकाट्य तर्क पेश करते हैं कि सवाल कॉमन सेंस का है। चीन बड़ी अर्थव्यवस्था है और हम छोटी। क्या किसी छोटी अर्थव्यवस्था को बड़ी अर्थव्यवस्था से पंगा लेना चाहिए। क्यूबा और फिदेल कास्त्रो की बात और है कि उसने आकार और अर्थव्यवस्था में संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने चिंदी होने के बावजूद उससे हार नहीं मानी।
अमेरिका झल्लाता रहा, पर कुछ नहीं कर पाया। लेकिन फिदेल कास्त्रो की तरह दाढ़ी रखने का मतलब यह तो नहीं कि हमारे परिधान मंत्री शी जिनपिंग से भिड़ जाएं। फिदेल कास्त्रो ने कभी अपनी छाती का नाप नहीं बताया। कम से कम हमारे परिधान मंत्री अपने सीने का नाप तो बताते हैं। भले उनके कपड़े का नाप लेने वाला दरजी कहता रहे कि उनकी छाती का नाप तैंतालीस इंच है। पर दावा तो दावा है। वादे और दावे में केवल अक्षर ही आगे-पीछे हैं। लेकिन दोनों की ज़ात तो एक है। पर ऐसा भी नहीं कि चीन का झूला डाल पर ही पड़ा दीखे या किसी चीनी स्टेंड पर। उन पत्रकारों और न्यूज़ हाऊस से पूछ कर देखिए, जिनके गले में आजकल ईडी के झूले पड़े हैं। राष्ट्रपिता की जंयती के अगले दिन सुबह-सवेरे जब चार दरजऩ से अधिक ये हजऱात अभी अपनी हाजत भी नहीं उतार पाए होंगे कि ईडी ने उनके गले में झूले डाल दिए।
चीन से जिन भारतीयों के सीधे व्यापारिक सम्बन्ध हैं, जो चीनी कम्पनियाँ सीधे भारत में निवेश कर रही हैं या जिन चीनी कम्पनियों ने पीएम केयर फंड में भारत में अपने व्यापारिक हितों की पैरवी के लिए खरबों का निवेश किया था, उन्हें छोड़ कर ईडी ने ऐसे न्यूज़ हाऊस पर छापा डाला, जिसे अमेरिका निवासी किसी साम्यवादी विचारधारा के समर्थक रिटायर उद्योगपति ने करीब दस करोड़ का चंदा दिया था। आजकल भारत में बीजे पार्टी की सरकार जिस तरह ईडी का उपयोग कर रही है, उससे मुझे युँगाडा के तानाशाह ईदी अमीन की बड़ी याद आ रही है। ईडी और ईदी में केवल ड और द का फर्क है। लेकिन अपने विरोधियों को गले लगाने का दोनों का तरीका एक सा है। ईदी का हश्र तो पूरी दुनिया जानती है। पर ईडी पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। अगली सरकार जिसकी होगी, वह भी अपने विरोधियों के गले में इसी तरह से ईडी की गलबहियाँ डलवाएगी। ईडी न भी हो तो किसी लोकतांत्रिक सरकार के पास उसके चाल, चरित्र और चेहरे पर सवाल उठाने वालों पर देशद्रोह की धाराएं लगाने का अधिकार तो बनता ही है।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal


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