आदरणीय पितरो, माफ करना

पत्नी ने गूगल अंकल से पूछ लिया था कि पहला श्राद्ध कब है, इस बहाने फेसबुक भी ज़्यादा पढ़ ली थी। पति ने पंडितजी से भी पूछ लिया था। वह्त्सेप यूनिवर्सिटी के इतने समझदार प्रोफेसरों की जमात तो है ही बताने और भ्रम पैदा करने के लिए। एक महिला ने बताया उनकी बहन फलां राज्य में रहती है और वहां पूर्णमासी को श्राद्ध नहीं मनाते। उस राज्य में तो काफी कुछ नहीं मानते और छोटी सी बात मनवाना हो तो काफी कुछ कर बैठते हैं। हमारी विविध संस्कृति है जहां चाहे, जैसा मन भाए वैसा कर लो। पितर और भगवान तो होते ही इतने अच्छे हैं कि नासमझ इनसान की किसी बात का बुरा नहीं मानते। कुछ क्षेत्रों में श्राद्ध, चवर्खा यानी मृत्यु के चार साल बाद शुरू होता है। पहले मृतक की बरसी, फिर श्राद्ध किया जाता है। दुनियावी स्वार्थ पूरे करने के लिए बरसी भी कई बार तीन चार महीने बाद ही निबटा दी जाती है। आत्मा इतनी पवित्र होती है कि वह इसका बुरा नहीं मानती। आत्माजी को पता होता ही होगा कि दुनिया चलती रहनी है। एक बरस तो बारह महीने बाद ही पूरा होना चाहिए, लेकिन बरसी निपटानी ज़रूरी है। दूसरों को खुश कर खुद को संतुष्ट रखना।
खैर, पूर्णमासी का श्राद्ध पूर्णमासी को ही किया। अमुक महिला कुछ खा सकी बाकी ले गई। दो चार जगह से खाना इक_ा हो जाता होगा तो क्या करते होंगे। ऐसा सोचने के लिए माफ करना पितरो। दुनिया विकसित होती जा रही है तो हर तरफ निकास भी होना है और विनाश भी। पशु प्रेमी चाहें तो उनके लिए विशेष, वार्षिक पवित्र पुण्य अवसर है। कौए पालकर उनसे एक साल में निरंतर कुछ दिन पुण्य दिलाने और पैसे कमाने का। कौए के नाम पर रखी पूड़ी निश्चित ही बंदर ने खाई। गाय भी नहीं मिली। गाय के नाम पर सडक़ किनारे रखी पूड़ी कुत्ते ने ही खाई होगी। उस समय तो कुत्ता भी नहीं मिला, हालांकि रात को दस बजे के बाद, आधी रात या सुबह उनका भौंकना लगा रहता है। वह अलग बात है कि अपने प्रिय पशु को शौच करवाने के बहाने निवासी सुबह-शाम विचरते हैं और शहर में गंदगी फैला रहे होते हैं। कौआ, गाय और कुत्ता काफी याद आए। शास्त्रों के अनुसार तो खाना उचित पात्र को खाना चाहिए, लेकिन अब ऐसा मुश्किल हो रहा है, इसलिए माफ करना पितरो। ख़बरें मिलती हैं श्राद्धों में इतना खाना इक_ा हो जाता है कि प्रबंधन मुश्किल हो जाता है।
कितनी ही बार वह खाना कचरे के हवाले ही दिखता है, इस बारे भी माफ करना पितरो। खाने का सामान यदि बिना पकाया दान कर दिया जाए तो बेहतर उपाय होगा। दिवंगत आत्माएं भी निश्चित रूप से प्रसन्न होंगी। शास्त्रसम्मत परम्पराओं व नियमों में बदलाव, प्रवेश करता जा रहा है। कितनी ही क्रियाएं सामाजिक रास्तों से विमुख हो चुकी हैं। एक पंडितजी बता रहे थे कि एक महिला उन्हें अपने किसी पितर के श्राद्ध के दिन भटूरे और छोले पकड़ा गई। वह उसे कुछ बताने, समझाने की कोशिश करते इससे पहले चली गई। शायद उसे इस बात का भान हो गया था कि उसने श्राद्ध निबटाया है। हम सबने मिलकर ज़माना इतना बदल दिया है कि वापस लौटना मुश्किल है, इसलिए सभी के आदरणीय पितरो! माफ करना।
प्रभात कुमार
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal


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