समांतर सहयोग

एकता कानूनगो बक्षी: अक्सर कहा और सुना जाता रहा है कि ‘गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों पर चलती है।’ इस कथन में कितनी सच्चाई और ईमानदारी है, इसका पता तो कथित दो पहियों की मन:स्थिति से ही समझा जा सकता है। आमतौर पर इस तरह के आदर्श वाक्य जिंदगी के असली धरातल पर कई बार अपना अर्थ खोते नजर आते हैं। गाड़ी के दोनो पहियों यानी स्त्री-पुरुष के साथ अलग-अलग बरताव समाज में अक्सर दिखाई देता है। अगर पहिए के एक पक्ष के रखरखाव में स्नेह स्निग्धता हो और दूसरे में जिम्मेदारियों और अपेक्षाओं के घर्षण की स्थितियां बन जाएं तो शायद उस गाड़ी की सहज गति अवश्य ही प्रभावित होगी।

चक्कों के घूमने की समान स्थितियों और धरातल की एकरूपता के बगैर गृहस्थी ही नहीं, किसी भी गाड़ी का सुगम संचालन कठिन होगा। पूरी गाड़ी पर जो बोझ चढ़ाया जाए, उसका भार भी दोनों ही पहियों पर समान रूप से बंट जाना भी बहुत जरूरी होता है। बहुत बार ऐसा हो नहीं पाता और गृहस्थी की गाड़ी अपना संतुलन खोने लगती है।

ऐसा भी होता है कभी-कभी कि गृहस्थी के पहिये, जो जिम्मेदारियों का बराबर वजन खुद पर लिए समर्पित भाव से आगे बढ़ रहे होते हैं, अचानक किसी अनचाहे सामाजिक हस्तक्षेप से लड़खड़ाने लगते हैं। जोड़ियों में घर्षण नजर आने लगता हैं और देखते ही देखते उमंगों और प्रेम के उनके स्वप्निल सपने सूली पर चढ़ जाते हैं। ‘दुश्मन हैं प्यार के जब लाखों गम संसार के दिल के सहारे कैसे प्यार करें’, इस गीत की पंक्ति के भाव को साथ लिए जीवन की गाड़ी को फिर भी आगे बढ़ाते रहते हैं, लेकिन सफर का सुख, सौंदर्य और आनंद उनसे दूर होता जाता है।

बात केवल गृहस्थी की ही नहीं है। जीवन के छोटे-बड़े हर काम में हमें अक्सर जोड़ियां नजर आ जाती हैं। थोड़ा याद करें तो हमारी शुरुआती समझ के दौर में ही हमें कई अलग संदर्भों में भी जोड़ियां नजर आने लगती हैं, मसलन ड्राइवर-कंडक्टर, डाक्टर-कंपाउंडर, प्रबंधक-लिपिक, मरीज-नर्स आदि के अलावा भी अनुभव के आधार पर हमें कई इस तरह के दिलचस्प संयोग दिखते हैं। जैसे मुख्य रसोइया-सहायक रसोइया, कारीगर-मजदूर आदि।

दरअसल, हमारे जीवन में ऐसी अनेक गाड़ियां काम पर लगी दिखाई देती हैं, जिनमें कभी दो तो कभी अनेक पहियों का सहयोग लक्ष्य प्राप्ति में एक साथ मिलकर संलग्न होता है। मिल-जुल कर करने से काम न केवल आसानी से और कम समय में संभव हो पाता है, बल्कि अलग-अलग दृष्टिकोण, सामर्थ्य और व्यक्तिगत निपुणता के कारण उसमें गुणवत्ता भी बनी रहती है।

सामूहिक योगदान या जोड़ियों में किए जाने वाले टीम वर्क के महत्त्व को वैसे तो अनेक उदाहरणों से समझा जा सकता है, लेकिन इसके लिए सिनेमा या फिल्म निर्माण क्षेत्र बड़ा ही सहज उदाहरण होगा। आपसी समझ और काम का अगर सही तालमेल यहां बैठ जाता है तो न सिर्फ पूरी टीम का, बल्कि दर्शकों के दिल जीतने में भी सफलता मिल जाती है। यही कारण है कि फिल्मों में इस तरह की जोड़ियों की अनुकूलित ‘केमिस्ट्री’ यानी बुनावट का खूब उपयोग किया गया है।

किसी को टीवी जैसे माध्यम की भी कई जोड़ियां याद आ सकती हैं। वह चाहे रहस्य और जासूसी शृंखला ‘ब्योमकेश बक्शी’ और उनके सहायक अजित बाबू की जोड़ी हो, सत्यजीत रे की बेहतरीन ‘फेलूदा’ शृंखला में जटायु, ‘बाम्बे टू गोआ’ के ड्राइवर-कंडक्टर की जोड़ी या फिर लोकप्रिय चित्रकथा शृंखला में चाचा चौधरी और साबू की जोड़ी। इनके अलावा, पति-पत्नी और परिवार के बाकी सदस्यों के गरमाहट भरे रिश्तों पर बनी ढेर सारी खुशनुमा फिल्में, जिसमें बड़ी से बड़ी मुसीबत को मिल-जुलकर एक दूसरे का ध्यान रखते हुए हल कर लिया जाता है।

यकीनन फिल्मों, टीवी, चित्रकथाओं की अपनी आभासी दुनिया होती है, लेकिन वास्तविक जीवन में सुख और सफलता के कुछ सूत्र भी वे हमें सौंपती हैं। कुछ स्वप्न हम संजोने लगते हैं। भले ही जीवन की आपाधापी में जुटे हुए हों, पर जोड़ियों, समूहों में आपसी स्नेह की मधुरता हर हाल में बनी रहनी चाहिए। इसके लिए सबसे जरूरी होगा कि एक दूसरे को देखने का हमारा नजरिया हम बदल सकें।

किसी एक को श्रेष्ठ मानने की जगह हर व्यक्ति और उसके काम को महत्त्व दें, उसकी श्रेष्ठता को महसूस करें। सब एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। कोई बड़ा-छोटा नहीं। जो काम सुई कर सकती है, वह तलवार नहीं कर सकती। साथ ही सुई और तलवार की उपयोगिता भी तभी होगी, जब कोई कुशल व्यक्ति उसे थामने के लिए मौजूद होगा। हर व्यक्ति एक दूसरे पर निर्भर है।

हमारे जीवन को आसान और सुखद बनाने में जोड़ियों में लगे पहियों पर संचालित कई गाड़ियां काम पर लगी हुई हैं। हमारा दायित्व है कि इन दौड़ते पहियों का सदैव खयाल रखें। जरूरी होगा यह समझना कि हम भी ऐसी ही किसी खूबसूरत गाड़ी का हिस्सा हैं।

क्रेडिट : jansatta.com


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