जनगणना की नई पहचान

By: divyahimachal�
जातिगत गणना के सिद्धांत पर चलती कांग्रेस की नई सियासत अब हिमाचल की पलकों पर सवार होकर, समाज को पुकार रही है। जाहिर है जाति के आधार पर जब लोग गिने जाएंगे, तो चुनाव की किश्तियां भी दरिया बदल लेंगी। जो दरिया हिमाचल में पहले बहते रहे, उन्होंने केवल शोर से ही सियासत में उत्तराधिकार पैदा किया और इसी के कारण पैदा हुआ परिवारवाद व कुछ जातियों का वर्चस्व परिलक्षित है। ऐसे में अगर जनगणना में दबे-कुचले लोग, पिछड़ी जातियां और चुनावी सूचियों से दूर रह गए लोग अगर नई पहचान के साथ गिन लिए गए, तो सियासत को अपना चरित्र बदलना पड़ेगा। हालांकि इसके खतरे हैं और सामाजिक विद्रूपता के आईनों में नई खुमारियों का डर भी, लेकिन जहां सियासत का पानी ठहर गया था, वहां हलचल बदल जाएगी और कई छप्पड़ आगे चलकर सरोवर बन सकते हैं। आश्चर्य यह है कि सियासत ने तो नया रास्ता चुनकर मतगणना को समाज में जोत दिया, लेकिन देश के लिए और देश की प्राथमिकताओं के लिए समाज के पीछे रह गए वर्ग को अलग नहीं किया जा रहा। कहना न होगा कि आज भी राष्ट्रीय संसाधनों का दोहन, आरक्षण की मुहिम में कुछ जातियों के जरिए मतदान को धो रहा है। आरक्षण में अगर सामाजिक सिक्के के दो पहलू हैं, तो चांदी के वर्क के ठीक नीचे तथाकथित उच्च जातियों के अति दरिद्र लोग विद्रूप हैं। इसलिए आरक्षण और जातिगत चयन में राष्ट्रीय योजनाओं, संकल्पों और संसाधनों की दरियादिली के बावजूद आर्थिक तौर पर विपन्नता तो दूर नहीं हो रही। हर बार एक नई क्रीमी लेयर उभर कर पुरानी पर चस्पां हो जाती और समाज में एक नए वर्ग को आरक्षण देने की मांग सवार हो जाती है।
जातिगत जनगणना का आधार, दरअसल सियासी अखाड़े के सारे नियम और पहलवान बदल सकती है। हिमाचल के राजनीतिक इतिहास का अवलोकन करें तो सत्ता के अहम रोल में कुछ जातियों की चमक यथावत है, जबकि शिखर पर संभावना तो जातिगत आधार पर भी हो सकती थी। अभी इस सवाल का जवाब मिलना बाकी है कि एक अकेली जातीय जनगणना किस तरह समूचे समाज को न्याय दिला सकती है, जबकि सामाजिक दर्पण में देखेंगे तो राष्ट्रीय संसाधनों के आबंटन में आर्थिक पिछड़ेपन की एक महाजाति पैदा हो गई है। देश अब चुनाव के पांव पर चलता है और राजनीतिक पार्टियां इसी अवधारणा में खुद को साध रही हैं। यह वजह है कि इस बार जातिगत गणना का पलड़ा भारी होकर राष्ट्रीय विपक्ष को आश्वासन दे रहा है, तो दूसरी ओर बिदक कर भाजपा इसके खिलाफ तर्क दे रही है। हिमाचल में जातिगत गणना अगर होती है, तो क्षेत्रीय राजनीति में बदलाव आ सकता है। अब तक हिमाचल में सबसे अधिक बार राजपूत व दो बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने, तो क्या आइंदा सत्ता के शिखर से अन्य जातियां आलिंगन कर पाएंगी। क्या नेताओं से बड़े जातीय समीकरण हो जाएंगे और तब हम समाज को अलग-अलग खाकों की सियासत में पहचानेंगे।
हम जहां से चले थे, वहीं पहुंच रहे हैं। यानी सरकार हमें पहचान दे रही है तथा उन्हीं गलियों में धकेल रही है, जहां हम हर बार किसी ऐसे आंदोलन से आहत हुए, जिसने समाज को विष दिया। हम न जाने कितनी बार मंडल-कमंडल के युद्ध में खुद को विद्वेष की भावना से तपाएंगे। बहरहाल जिस प्रतिनिधित्व की लोकतंत्र को जरूरत है, उससे हटकर हम जातियों के माल्यार्पण में तब तक लोकतांत्रिक आडंबर रचते रहेंगे, जब तक सियासत केवल चुनाव की जीत-हार पर ही देश को विभाजित होते हुए देखना चाहेगी। हिमाचल में जाति आधार की जनगणना में कई समुदायों के बीच विभाजन स्पष्ट होगा। आगे चलकर हर विधानसभा की शासक कोई एक जाति हो सकती है, तब समाज की महत्त्वाकांक्षा का आधार क्या होगा। रोचक यह भी है कि प्रदेश की ट्राइबल आबादी ऐसे जातीय समीकरणों में लोकसभा क्षेत्रों को किस तरह ओढ़ती है और क्या कांगड़ा-हमीरपुर लोकसभा क्षेत्रों में अन्य पिछड़ा वर्ग की शुमारी को यह प्रदेश उच्च स्थान दे पाएगा।


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