फिर बैतलवा डाल पर

लगा था इस बार शायद ऐसा नहीं होगा। पौन सदी कम नहीं होती। आदमी की जि़ंदगी हो तो इसमें लगभग खप ही जाती है। देश की हो तो भी उसे उसका रोशन काल नहीं कह सकते। अव्वल तो इनसे मिलने का मौका ही नहीं मिलता। प्राय: वह अपने हवाई मीनार में रहते हैं और इस सडक़ पर इनके मीनार को देखते हुए कि नहीं इस बार सपनों का शहज़ादा अवश्य अपने घोड़े से उतर आएगा। हमारे गदौ गुब्बार में हमारे अंग-संग चलेगा। हमारे दर्द को अपने गले से लगाएगा। हम इक_े चल कर इन टूटी-फूटी सडक़ों या रास्ता भूली पगडंडियों की जगह एक नए जनपथ का निर्माण कर सकें। इस पर सबको बराबर-बराबर चलने का हक होगा। इस पौन सदी में हमने हर जनपथ को शार्टकट बना सफलता लेने की पगडंडी में बदलते देखा है। इस पगडंडी का रास्ता कूड़े के उपलों पर नकारने में नहीं, बल्कि उसकी जगह उन पर एक मन भावन कलई कर के स्वच्छ भारत सिद्ध कर देने की मुस्कराती घोषणा के साथ होता है। इस चुंधयाई हुई आंखों के साथ देखते हैं कि कल जो डम्प था, हम एक किसी चोर गली के रास्ते सिंहासन में तबदील हो गया।
उस पर वे जम गए हैं, आवारा सपनों के उस मसीहा की तरह, जिसने पगडंडी बदलते हुए उनके सपने तो किसी भूल भलैया में खो दिए और अपने दावों की विजयश्री के साथ अपनी शोभा को हमारी शोभा यात्र बनाने पर तुला हुआ है। हम उन स्मार्ट शहरों में अपनी बना दी गई इस शोभायात्र को तलाशते हैं, जो बिन बादल बरसात से उमड़ आए गले-गले पानी में डूबती,उतराती उस जीवन नौका की तलाश करती है जो हमें आदमी, इनसानियत और पवित्र डुबोती इस जल प्रलय में से निकाल कर किसी सूखी धरती पर खड़ा कर दे। 75 बरस बीत गए, वह सूखी धरती हमें कहीं मिली नहीं। मिले तो बस उसकी प्राप्ति के गुटके। इन नाटकीय भाषणों में मिले वे अपनी चिल्लाहटों को गिनीज़ बुक ऑफ रिकार्ड में तबदील कर देना चाहते थे। यह चिल्लाहट कहती थी कि आपसे जो पौन सदी से नहीं हो सका, वह चंद बरस में कर दिखाया। आप बैंकों की ओर देखने की हिम्मत नहीं कर सकते थे, हमने करोड़ों की संख्या में आपके ज़ीरो बैलेंस खाते खोल दिए। वायदा किया आपका भुगतान सीधा अब आपके खाते में जाएगा। बीच के मध्यजनों की धांधली और दलाली खत्म हो जाएगी। लेकिन साहिब, नीचे के ये लोग बड़े शक्तिमान हैं। भई, सदियों का अंधेरा है, एक दिन में तो नहीं छंट जाएगा।
जो राजा है वह राजा ही रहते हैं और जो रंक हैं, उन्हें अब किसी नई घोषणा से बहलाना है। इसका फैसला तो राजा ही करेगा। इस फैसले पर जनता की तालियों के ज़ामिन यह मध्यजन ही बनते हैं। भला इन्हें अमान्य कैसे किया जा सकता है? आओ, क्यों न इन्हें इसे इस बनते संवरते समाज का जरूरी हिस्सा घोषित करके कानूनी मान्यता दे दी जाए। सही भी है, सिंहासन भी भला अपने पायों के बिना टिक सकता है। अपने इन सवालों के जवाब न पाकर बैतलवा फिर उसी डाल पर जा कर बैठ जाता है और आर्थिक विकास की इस दौड़ में ठूंठ रह गए उस मुक्तिवृक्ष में तलाश करता है कि क्या यह वही देश है जिसकी डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा बसेरा करती थी? मंदी ग्रस्त इस माहौल से उसे सोन चिडिय़ा तो चहचहाती हुई दिखाई नहीं देती, हां उपवास ग्रस्त, धैर्यवान पंख नुचे कबूतरों के हुजूम अवश्य दिखाई देते हैं, जिन्हें इन 75 सालों में चुनाव दर चुनाव कंजी आंखों वाले चुन्दिा कौए सपनों का कोई न कोई नया बायस्कोप दिखाने लगते हैं। बीच रास्ते कौओं की डारें बदल गईं, बेताल को मुर्दा डालों से उतार कर नए मुक्ति प्रसंग देने के वायदे हुए, लेकिन कसमें, वायदे, प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या? बेताल आज भी उसी डाली पर टंगा है, हां निचली डाली पर फंदा लेकर कोई गरीब आदमी मर गया। सरकारी खातों में उसका हिसाब अपच से मरे आदमी की मौत का होता है।
सुरेश सेठ
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By: divyahimachal
