आपदा का हिसाब

By: divyahimachal
अभी कुछ दिन ही हुए कि जब हिमाचल प्राकृतिक आपदा के हर दृष्टांत में निरीह, लाचार और सदी के सबसे भीषण दंश झेल रहा था, लेकिन अब प्रदेश विधानसभा में तो हो-हल्ले का शगल हम मना सकते हैं। फटते बादलों से कहीं अधिक राजनीतिक बादलों का फटना और लोकतंत्र को चारदीवारी मानकर सत्ता और विपक्ष में एक-दूसरे को पीछे धकेलने का मतलब यह क्यों न माना जाए कि जनता की त्रासदी में भी यहां आपस में हिसाब हो रहा है। वॉकआउट की पेशकश में क्या आपदा का असर कम हो गया। जाहिर है आपदा में भी हमें दो हिमाचल न•ार आए। एक ने सरकार से गुजारिश की तो दूसरे ने सरकार को ही खींचा। इस विभाजक रेखा से परे आपदा सिर्फ आंसुओं की कहानी नहीं, राहत के इंतजाम का पैगाम भी है। आपदा के बाद प्रदेश सरकार ने क्या और किस तरह किया या आगे क्या कार्ययोजना है, इसका विश्लेषण करने का लोकतांत्रिक अधिकार विपक्ष के पास है। दूसरी ओर केंद्र सरकार हिमाचल में हुई आपदा को लेकर किस कद्र संवेदनशील व तत्पर हुई, यह हिमाचल की टूटी-फूटी तस्वीर और पहाड़ी संवेदना पूछ रही है। आपदा का हिसाब, सियासी आपदा नहीं और न ही ऐसे टकराव से जनता की आहत भावनाओं को अमृत मिलेगा। पहले से ही झुलसे हिमाचली अगर विधानसभा के मानसून सत्र को बहिष्कारों में जाया होते देखेंगे, तो यह जख्मों पर नमक उंडेलने का सबब ही होगा।
जहां तेरह हजार मकान क्षतिग्रस्त हों और विकास के सारे रास्ते खंडित हों, वहां बहस तो यह होनी चाहिए कि आखिर इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित होने के लिए हिमाचल को किस हद तक मरना होगा। क्या हमारे जख्म इस लायक भी नहीं कि केंद्र इन्हें भुज के भूकंप और अमरनाथ की त्रासदी के आसपास महसूस करे। बहरहाल, आपदा के खेल में सियासत के पास वह सब कुछ है, जो प्रभावित परिवारों को मिलने की उम्मीद नहीं। जाहिर है आम जनता को हर तरह की आपदा में जीना आ गया है। आपदा तो राजस्व रिकार्ड के हर नुक्ते पर सवार रहती है, जब किसी ग्रामीण को अपनी जमीन के मामले में पटवारी से तहसीलदार तक हाजिरी लगाकर लगातार पता चलता है कि देश की कार्य संस्कृति किस तरह अनुपस्थित रहने की बुनियाद पर चल रही है। किसी बीमार व्यक्ति के उपचार के चारों तरफ आपदाएं किस तरह हर क्षण को गंभीर, अनिश्चित व अनिर्णायक करती हैं। ऐसे में सोचना या गौर यह फरमाना होगा कि बीमारी की आपदा इसलिए दिखाई दी कि सरकारी अस्पताल फेल हुआ या इसलिए कि निजी अस्पताल अब पड़ोस में खुल गया है।
कभी किसी सडक़ पर यूं ही निकल जाना और देखना कि हमारी क्रय शक्ति ने लाखों वाहन चला कर आपदा पैदा कर दी या परिवहन का यही दस्तूर हमारी आपदा बनी रहेगी। क्या हम अपनी पंचायत के प्रतिनिधि चुनकर आपदाग्रस्त हुए या विधानसभा के लिए एक अदद एमएलए पाकर अपनी आपदाओं से मुक्त हुए। हैरानी यह कि सदन के भीतर और सदन के बाहर अंतत: आपदाग्रस्त तो वो मतदाता है, जो लोकतंत्र की कतार में खड़ा होकर भी अपने प्रश्नों का उत्तर पाने में सबसे पीछे है। ऐसे में आश्चर्य यह कि प्राकृतिक आपदा के दौरान आई तमाम दरारों से कहीं गहरी, स्थायी व अकल्पनीय दरारें लेकर वर्तमान राजनीति चलती है। इनके लिए बहस के शुभ मुहूर्त के लिए बस एक दरार चाहिए और इसीलिए प्रकृति के विध्वंस में सियासत ने चुन लीं अपने वर्चस्व के लिए कुछ दरारें।
