अंगारों पर कुछ कदम

By: divyahimachal :

बदलती सदी के तमाशों के बीच स्वाभिमान की भिन्न लड़ाइयों के मध्य इनसान और नागरिक समाज के सामने सरकारों के अवतरण। एक बार फिर हिमाचल अपनी ही पड़ताल में घायल स्वाभिमान की खातिर अपने अधिकारों के आगे बौना और असहाय खड़ा है। इस बार फेहरिस्त में वाइल्ड फ्लावर हॉल के स्वामित्व को लेकर पुन: प्रदेश अंगारों पर चल रहा है। बाईस साल से प्रतीक्षारत हिमाचल जब वाइल्ड फ्लावर हॉल के भीतर प्रवेश करता है, तो चंद घंटों में यह मुलाकात भी असरदार नहीं होती, नतीजतन कदम पीछे लेने पड़े। कानूनी तौर पर हिमाचल के अस्तित्व से जुड़ी कई संपत्तियां आज भी हिमाचल की होकर भी, किसी न किसी चंगुल में फंसी हैं। वाइल्ड फ्लावर हॉल भी इनमें से एक है और जिसके ऊपर अपने हक की प्राप्ति के लिए सरकारें लगातार अदालत से न्याय मांग रही हैं। एक उत्साहवर्धक निर्णय आया भी तो स्टे के पंजे में फंस गया। पर्यटन की दृष्टि से यह संपत्ति राज्य के लिए रोमांच पैदा करती है। एक उच्च स्तरीय रैंकिंग के साथ वाइल्ड फ्लावर हॉल होने का अर्थ, हिमाचल के पर्यटन निगम को मालामाल कर सकता है, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि सरकारी उपक्रम ऐसी संपत्तियों से राज्य के खजाने का संबल बन जाते हैं। अगर ऐसी व्यवस्था, निपुणता तथा कौशल पैदा हो जाए, तो तमाम सार्वजनिक होटल इकाइयां पर्यटन का दस्तूर बदल दें। बदलने के लिए प्रदेश के तमाम डाक बंगले अगर पर्यटन से गठजोड़ कर लें तो करीब ढाई हजार संपत्तियां अपने हवाले से सैलानियों को बार-बार नई जगह पर बुलाने का न्यौता दे सकती हैं।

खैर वाइल्ड फ्लावर हॉल एक स्वप्निल कहानी है जो यथार्थ में हिमाचल के पर्यटन संबोधन का सीना चौड़ा कर सकती है। हिमाचल दरअसल ऐसी जमीन का टुकड़ा है, जहां कहीं पंजाब पुनर्गठन की बुर्जियां अतिक्रमण कर रही हैं, तो कहीं पूर्ववर्ती लीज के तहत बांटी गईं संपत्तियों का अधिकार तरस रहा है। पंजाब से हिमाचल में आकर मिले पर्वतीय क्षेत्र केवल जमीन की सीमा नहीं, बल्कि पर्वतीय आत्मसम्मान का अधिकार भी था। पंजाब में से 7.19 प्रतिशत हिस्सा इस तरह सीधे पर्वतीय अस्मिता का अंग था जो संस्कृति, बोली, भाषा, जीवन शैली व पहाड़ी परंपराओं से मेल खाता था। पंजाब पुनर्गठन में पहाड़ी लोग तो धकेल दिए, पर्वत का फर्ज, पर्वत का मर्ज, पर्वत की अस्मिता, पर्वत की आत्मनिर्भरता, पर्वतीय क्षेत्रों के समझौते और अनुबंध अपने कब्जे में रख लिए। दूसरी ओर तत्कालीन हिमाचल की शासकीय व्यवस्था ने इन इलाकों को अपनी अस्मिता की भुजा या तर्क बनाने के बजाय, राजनीतिक बंटवारा मान लिया। यही बंटवारा आगे चलकर और अब तक हिमाचल की सियासत को बांट रहा है, वरना पौंग, गोविंदसागर व शानन विद्युत परियोजना जैसे समझौते उसी वक्त हिमाचल की अमानत हो जाते तथा बीबीएमबी का अस्तित्व हमारी पहचान बन जाता।

आश्चर्य यह कि हरियाणा और पंजाब ने केंद्र शासित चंडीगढ़ में अपनी-अपनी राजधानियों की तलाशी में संपत्तियां अर्जित कर लीं, लेकिन किसी सियासी हस्ती ने यह नहीं सोचा कि इसी अनुपात में हिमाचल के हिस्से भी दो-तीन सेक्टर या एक मिनी राजधानी का अधिकार चंडीगढ़ में मिल जाता। हिमाचल अगर चंडीगढ़ में तब अपने लिए भूमि और भूमिका हासिल कर लेता, तो मोहाली व पंचकूला की तरह परवाणू-बीबीएन तक प्रदेश की भी आर्थिक राजधानी होती। हिमाचल ने अपनी सियासी संकीर्णता के कारण पंजाब पुनर्गठन के मसले को सत्ता के लाल कालीन के नीचे छिपाए रखा, फिर भी कुछ मुख्यमंत्रियों ने अस्तित्व की तलाशी में अपने अधिकार खोज डाले। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की यात्रा इन्हीं अधिकारों की खोज थी, तो अब सुखविंदर सुक्खू भी पर्वतीय आत्मसम्मान की बुलंदी को पाने के लिए हुंकारा भर रहे हैं। वाटर सेस इसी तरह का एक फैसला है जो केंद्र से आसानी से हासिल नहीं होगा, लेकिन इस फाइल को जनता की कचहरी तक ले जाने का माहौल अगर बन पाता है, तो हिमाचल की अस्मिता इससे जुड़ जाएगी। इसी तरह शानन परियोजना की लीज समाप्त होने के बाद इसे हासिल करने की कसरतों में केंद्र की भूमिका के खिलाफ आवाज बुलंद होती है, तो यह आत्मनिर्भरता की ओर उठने वाले कदम हैं। विडंबना यह है कि सियासी जमघट में कई बार ऐसे मुद्दों की मिट्टी पलीद हो जाती है, जबकि प्रदेश की आर्थिक तरक्की में क्या भाजपा और क्या कांग्रेस, सभी की जिम्मेदारी स्पष्ट है। कई बार विधानसभा ने बाकायदा प्रस्ताव पारित करके देश से अपने अधिकारों की पैरवी की है, लेकिन वाटर सेस पर अब तक लगीं अड़चनें बता रही हैं कि कहीं इस फैसले की अहमियत पर भी देश अपनी उदासीनता से भरी शर्तें थोपना चाहता है। ऐसे में कानून के दूसरे पलड़े में सियासत भी अपना दबाव दिखा रही है।


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