झारखण्ड : कविगुरु का गिरिडीह से था पुराना रिश्ता, पसंद था खास कुएं का पानी

रवींद्रनाथ टैगोर ऐसी शख्सियत हैं जिनका नाम देश का बच्चा-बच्चा जानता है. साहित्यजगत में उनका योगदान अतूलनीय रहा है. कला प्रेमी होने के साथ ही उन्होंने दार्शनिक और आंदोलनकारी की भूमिक भी निभाई. उनके देशभक्ति के गीत आज भी देशप्रेमियों की पहली पसंद है. 7 अगस्त 1941 को उन्होंने इस संसार को त्याग दिया था. कविगुरू की उपलब्धियां तो हर कोई जानता है, लेकिन ये बात बहुत कम लोग जानते हैं कि रविंद्र नाथ टौगोर का झारखंड के गिरिडीह से बेहद खास रिश्ता रहा है.
देशप्रेमियों की जुबान पर आज भी गीत
कवि, उपन्यासकार, चित्रकार, दार्शनिक, संगीतकार, समाज सुधारक, दृश्य कलाकार, नाटककार, लेखक, शिक्षाविद जैसे शब्द उपलब्धियां गिनाते-गिनाते कम पड़ जाते हैं. कुछ ऐसे ही थे गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर. कवि के रूप में जब शब्दों में मर्म पिरोते तो एक एक शब्द मंत्रमुग्ध कर लेती और आंदोलनकारी के रूप में जब गीत लिखते तो हर वर्ग उत्साह के भर उठता. देश भक्ति के उनके गीत आज भी देशप्रेमियों की जुबान पर है.
साहित्य का नोबेल पुरस्कार
रविंद्र नाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के ठाकुरबाड़ी में हुआ था. इनके पिता का नाम देवेंद्र नाथ टैगोर और माता का नाम शारदा देवी था. उनके पिता देवेंद्र नाथ टैगोर ब्रह्म समाज के नेता थे. रविंद्र नाथ टैगोर अपने घर में सबसे छोटे थे. उन्हें बचपन से ही कविताओं का शौक था और शुरुआती उम्र में ही वो कविताएं लिखने लगे थे. 1890 के दशक में इनकी कई कविताएं, कहानियां और उपन्यास प्रकाशित हुए और वे बंगाल में प्रसिद्ध हो गए. रवीन्द्रनाथ के कुछ महत्वपूर्ण गीतों में भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगीत शामिल है. रविंद्र नाथ टैगोर को 1913 में उनकी रचना गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी दिया गया.
 कई बार गिरिडीह प्रवास पर आए थे ‘गुरुदेव’
रविंद्र नाथ टैगोर ने ना सिर्फ भारतीय संस्कृति को पश्चिमी देशों में प्रचारित किया बल्कि राष्ट्रीय आंदोलनों में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. गुरुदेव की रचनाओं और उपलब्धियों को तो हर कोई जानता है, लेकिन बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि कविगुरु का गिरिडीह से खास रिश्ता रहा है. दरअसल वो यहां के प्राकृतिक सौंदर्य के कायल थे. गिरिडीह के महेशमुंडा के कुंआ का पानी उनको और उनके परिवार को खूब भाता था. यही कारण है कि कोलकाता में भी रहने पर वो ट्रेन से उस कुएं का पानी मंगाया करते थे. यहां तक कि जब उनकी बेटी रेणुका की तबियत बिगड़ी तब उसे भी बेहतर आबोहवा के लिए गिरिडीह ही आए थे.
‘एकला चलो रे’ की रचना गिरिडीह में ही हुई
1905 में बंगभंग आंदोलन के दौरान भी गुरुदेव गिरीडीह आए थे. इतना ही नहीं गिरिडीह में कविगुरु की अध्यक्षता में कई साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन होते थे. रविंद्रनाथ टौगोर की सबसे प्रचलित गीतों में से एक ‘जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे तोबे एकला चलो रे’ की रचना भी उन्होंने गिरिडीह प्रवास के दौरान ही की थी. रविंद्र नाथ टैगौर ने अपनी पहली कविता तब लिखी थी जब वो सिर्फ 8 साल के थे. उनकी कविताओं में देश भक्ती के साथ ही दार्शनिकता का अनोखा समागम देखने को मिलता था. उनकी कला के कायल अंग्रेज भी थे. जिन्होंने गुरुदेव को नाइड हुड की उपाधि दी थी.


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