बेटियों के ‘चैम्पियन’ मुक्के

By: divyahimachal
भारत की बेटियों ने एक बार फिर देश को गौरवान्वित किया है। इतिहास रचे हैं। औरत से जुड़े प्राचीन, लैंगिक मिथक भी भंग किए हैं। मुक्केबाजी सरीखे प्रहारक और कठोर खेल को नये आसमान, नई प्रासंगिकता दी है। मैरी कोम की एक सशक्त और विजेता पीढ़ी तैयार की है। नीतू घंघास, निकहत जऱीन, स्वीटी बूरा और लवलीना बोरगोहन आज मुक्केबाजी की ‘विश्व चैम्पियन’ हैं। उन्होंने क्रमश: 48, 50, 70-75 और 81 किलोग्राम भार-वर्ग में विश्व महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप के ‘स्वर्ण पदक’ हासिल किए हैं। ये पदक अनूठे, अद्भुत, अभूतपूर्व और ताकत के प्रतीक हैं। कभी कल्पना ही की जा सकती थी कि हमारी बेटियां विश्व स्तर पर मुक्केबाजी के खेल में ऐसी बुलंदियां भी छू पाएंगी, लेकिन आज यथार्थ सामने है। राजधानी दिल्ली के उसी स्टेडियम में ये चारों बेटियां ‘विश्व चैम्पियन’ बनीं, जहां करीब पांच साल पहले छह बार की विश्व चैम्पियन मैरी कोम ने खेल को ‘भावुक अलविदा’ कहा था। शायद तब सवाल और संशय रहा होगा कि मैरी कोम का ‘शून्य’ कौन भरेगा? महिला मुक्केबाजी सुरक्षित रह पाएगी अथवा नहीं? लेकिन एक नहीं, चार बेटियों के ‘चैम्पियन मुक्कों’ ने साबित कर दिया कि खेल आज भी सुरक्षित मु_ियों में बंद है। मैरी कोम की पीढ़ी भी ‘विश्व चैम्पियन’ है। जिस दौर में मैरी कोम ने मुक्कों का यह खेल शुरू किया था, सामाजिक प्रताडऩाएं और औरत-विरोधी सोच उन्हें भी झेलनी पड़ी थीं। सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पीवी सिंधु, मीराबाई चानू और महिला पहलवानों ने भी अनेक फिकरे सुने, पोशाक तक पर सवाल किए गए, संस्कृति और परंपराओं के पतन की बातें सुननी पड़ीं, लेकिन ये तमाम खिलाड़ी ‘विश्व चैम्पियन’ स्तर के रहे हैं।
जब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘राष्ट्रगान’ की धुन बजती है और ‘तिरंगा’ सम्मानित होता है, तो लैंगिक रूढि़वाद के कई मिथक टूटते हैं। आज खेल में लैंगिक विभेद के आधार पर विश्लेषण नहीं किए जा सकते। हैदराबाद क्षेत्र की मुस्लिम लडक़ी निकहत जऱीन 50 किलो के भार-वर्ग में लगातार दूसरी बार ‘विश्व चैम्पियन’ बनी हैं। मैरी कोम के बाद जऱीन ने ही यह उपलब्धि, बुलंदी हासिल की है। घर में तीन बहनें और भी हैं और अब्बू सिर्फ एक सेल्समैन हैं। सामाजिक के साथ-साथ आर्थिक बंदिशें भी रही हैं। उन विसंगतियों के बावजूद जऱीन दोबारा ‘विश्व चैम्पियन’ बनी हैं। अपने खिताब की राशि से वह अपने माता-पिता को ‘उमराह’ को भेजना चाहती हैं, लिहाजा जऱीन की मानसिक और भावनात्मक व्यापकता की प्रशंसा की जानी चाहिए। जऱीन ने कॉमनवेल्थ गेम्स में भी स्वर्ण पदक जीता था। नीतू घंघास तो मात्र 22 साल की हैं। उनका भार-वर्ग 48 किलो का है, जिसमें मैरी कोम ‘विश्व चैम्पियन’ बनी थीं। ओलंपिक पदक भी जीता था। लवलीना की पृष्ठभूमि भी कम दयनीय नहीं है, लेकिन उसने टोक्यो ओलंपिक में कांस्य पदक जीत कर अपना माद्दा, हुनर साफ़ कर दिया था। वह पहली बार 70-75 किलो भार-वर्ग में ‘विश्व चैम्पियन’ बनी हैं। स्वीटी बूरी मैरी कोम की तरह विवाहित हैं, लेकिन उनके मुक्कों की बौछार, ताकत, निशाना बिलकुल नहीं भटके हैं। लवलीना और मैरी कोम में एक साझा तथ्य यह है कि दोनों पूर्वोत्तर से आती हैं और भारत का गौरव बढ़ा रही हैं।
