रावण को किसके सद्गुणों के बारे में अंगद समझा रहे थे

धर्म अध्यात्म: श्रीरामचरित मानस में वर्णित कोई भी चौपाई, पद अथवा सोरठा, या एक साधारण-सी दिखने वाली पंक्ति भी व्यर्थ भाव में नहीं लिखी गई है। इस महान पवित्र ग्रंथ में निहित संपूर्ण ज्ञान, मानव जाति के उत्थान के लिए ही लिपिबद्ध किया गया है। तभी तो वीर अंगद द्वारा रावण को, दिए जा रहे, चौदह मृत लोगों वाले उपदेस को, रावण के माध्यम से संपूर्ण जगत को दिया जा रहा है। कारण कि रावण का तो उसी समय ही निश्चित था, कि उसे तो संसार से अपयश कमा कर चले जाना है। लेकिन आने वाले भविष्य में असंख्य ही ऐसी पीढ़ियां आने वाली हैं, जो या तो श्रीराम जी के पथ मार्गी होंगे, या फिर, वे रावण के कुमार्ग को अंगीकार करेंगे। अगर वे रावण के पथ को पाने वाले होंगे, तो उन्हें कम से कम यह जानकारी तो होगी, कि अगर हम ऐसे चौदह प्रकार के लोगों को अपने समक्ष पायेंगे, तो महापुरुषों ने तो उन्हें पहले ही मृत की संज्ञा में रखा हुआ है। ऐसे में संभव है, कि जीव संभलने का प्रयास करेगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति स्वयं को कभी भी, जीते जागते मृत कहलाना पसंद नहीं करेगा।
रावण के समक्ष बाकी मृत लोगों की चर्चा तो अभी शेष थी। वीर अंगद आगे कहते हैं कि ‘बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी।’ अर्थात उन्हें भी मृत ही मानना चाहिए, जो भगवान विष्णु, वेद एवं संतों का विरोधी हो। रावण तो चलो इन अवगुणों से भरा हुआ ही था। लेकिन आज वर्तमान की परिपाटी में भी देखेंगे, तो हमारे चारों ओर ऐसी विचारधारा वाले असभ्य लोगों से दुनिया भरी पड़ी है। लोग स्वयं को नास्तिक कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। अध्यात्म इनकी दृष्टि में व्यर्थ होने के साथ-साथ, निरा कूड़ विषय है। उन्हें लगता है, कि धर्म को मानने वाले लोग अशांति फैलाते हैं। दंगे व हिंसा इन्हीं के कारण है। संतों के प्रति तो उनके शब्दों में अत्याधिक विष भरा होता है। उन्हें लगता है, कि संसार के समस्त सुख वैभव व काम सुख तो आज के आधुनिक संत लोग ही भोगते हैं। वेद की बात करें, तो वे इस महान ग्रंथ से पूर्णतः अपरिचित हैं। उन्हें लगता है, कि वेदों में भला ऐसा क्या है, जो कि हम इसे पढ़ें? पर उन्हें क्या पता है, कि हमारे वेदों में विज्ञान के ऐसे-ऐसे महान सूत्र लिपिबद्ध हैं, कि जर्मनी जैसे देश में तो वेदों को अपनी सरल भाषा में अनुवाद करके, वे बड़ी-बड़ी खोजें कर रहे हैं। और जिन संतों के प्रति वे अपनी कड़वाहट प्रगट कर रहे हैं। वे वास्तव में संत ही कहाँ हैं? वे तो पूर्णतः कपटी व छल से भरे धूर्त हैं। जो रावण की भाँति संत वेष में आकर, भोली भाली माता सीता का अपहरण करते हैं। संत तो महर्षि वाल्मिकी थे, जिनके पास माता सीता रहती भी हैं, और अपने दो प्रतापी पुत्रें को वहाँ जन्म भी देती हैं। बस अंतर यह है, कि त्रेता युग में रावण जैसे कपटियों की संख्या अधिक नहीं थी। जबकि वर्तमान समय में महर्षि वाल्मिकी जैसे संतों की संख्या अधिक नहीं है। जिसे देखो भगवा रंग के कपड़े पहन कर साधु बनने का ढोंग करने लगता है। जबकि शास्त्रों में साधु की परिभाषा बड़ी कठिन कही गई-
‘साधु कहाना कठिन है, ज्यों लंबी पेड़ खजूर।
चढे़ तो चखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर।।’
अंत में वीर अंगद कहते हैं-
‘तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवत सव चौदह प्रानी।।’
आपने संसार में देखा होगा, कि कुछ लोगों को केवल अपने तन के सुखों तक ही मतलब होता है। वे केवल अपने पेट के ही सगे होते हैं। उनके समक्ष कोई कितने भी अभाव में ही क्यों न हो, उनका हृदय रत्ती भर भी द्रवित नहीं होता। हमारे गुरु जनों ने लंगर की प्रथा इसीलिए तो आरम्भ की थी। कारण कि हम सब मिल कर भूखे-प्यासों की सहायता करें।
बारहवें स्थान पर वीर अंगद ने पराई निंदा करने वालों को रखा। उन्होंने कहा कि जो लोग कभी अपने चरित्र का अवलोकन न करके, सदैव दूसरों के चरित्र पर ही लाँछन लगाते रहते हैं। उनकी निंदा करते रहते हैं, उन्हें भी मरा ही समझना चाहिए। और अंत में कहा कि जो लोग पापों की खान होते हैं। अर्थात किसी भी अवगुण से रहित नहीं होते, वे भी मरे ही होते हैं।


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