एक हिंदी लवर को मासिक हिंदी धर्म

 
हिंदी में लिखने वालों का विकास जहां का तहां रुका हुआ हो तो रुका रहे, हिंदी में लिखने वालों पर संकट के घोर बादल और घनघोर हो गए हों तो होते रहें, पर हिंदी का सचमुच विकास हो रहा है। बजट फाड़ कर विकास हो रहा है। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक सभी अपने अपने मनमाने तरीके से हिंदी धमाकेदार विकास करने में लुटे जुटे हैं। अंग्रेजी में सरकारी पत्र व्यवहार करने वाले हिंदियों द्वारा राजभाषा हिंदी पुरस्कार धड़ाधड़ झपटे जा रहे हैं। जिसका जैसे मन कर रहा है, वह वैसे हिंदी से खेल रहा है, जिसका जैसे तन कर रहा है, वह हिंदी वैसे पेल रहा है। और जो मजबूरी का निष्काम हिंदी प्रेमी है, वह हिंदी पर निरंतर होते हमले अपने ऊपर झेल रहा है। जनाब! गम नॉट! हिंदी का विकास पुरजोर हो रहा है, शोरोंशोर हो रहा है। हिंदी के मासिक विकास के बजट के लिए कोई कमी नहीं। हिंदी को दारू से महीना भर जितना मर्जी नहलाओ। वैष्णव हिंदी को भोग लगाकर जितना मर्जी जो खाओ। पर, बस हर हाल में हिंदी मास मनाओ। मेरे बचपन के दिनों में खींचखांच कर हिंदी सप्ताह मनाया जाता था। शायद तब हिंदी की दशा आज जितनी दयनीय नहीं थी। इसलिए हिंदी के उत्थान के लिए बजट शजट भी कम ही होता था। बजट का किसी और से सीधा संबंध हो या न, पर रस्म पगड़ी से लेकर उनके शपथ समारोह के कार्यक्रम तक से सीधा संबंध होता है।
जो बाप अपनी रस्म पगड़ी के लिए अनुमानित महंगाई इंडेक्स के हिसाब से जोड़ छोड़़ कर नहीं जाता, जिंदा जी तो उसकी पगड़ी यहां वहां उछलती ही रहती है, पर रस्म पगड़ी में भी उसकी पगड़ी उछलते देर नहीं लगती। तब हफ्ते भर हिंदी को मनाने, बहलाने, खाने, खिलाने से सारा साल काम मजे से चल जाता था। हिंदी प्रेमियों के पेट की च्वाइस भी ज्यादा नहीं होती थी। अधिकतर गैर सरकारी हिंदी प्रेमी वैष्णव होते थे। एकाध नॉनवेज होता था तो वह अधिकारियों के साथ चल जाता था। अब रही बात आयोजन के सरकारी आयोजकों की! वे तो हर समय में नॉनवेज ही रहे हैं। वे तिल के बिल बनाना अच्छी तरह जो जानते थे, जानते हैं। जब हिंदी के बजटीय शुभचिंतकों को लगा कि हिंदी साल दर साल खतरे में पड़ती जा रही है, हिंदी की रक्षा के लिए बजट का प्रावधान कुछ अधिक होना शुरू हुआ। हिंदी सप्ताह की जगह हिंदी पखवाड़े ने ले ली। अधिक बजट होने से हिंदी के प्रति चिंता अधिक होना लाजिमी था। जिसके लिए बजट जितना अधिक, उस पर उतनी अधिक चिंता करना सबसे बड़ी नैतिक ईमानदारी। यह बजट ईमानदारी से खाने वालों का सर्वकालिक सिद्धांत है। हर नियम को चुनौती दी जा सकती है, पर इस नियम को नहीं। कम बजट में बजट से अधिक चिंतन मनन कोई करके दिखाए तो उसके जूते पानी पिऊं।
अब जनाब! हिंदी को मनाने के लिए बजट का प्रावधान और बढ़ा तो हिंदी पर चिंतन पाक्षिक से मासिक हो गया। महीना भर जब मन करे, हिंदी दिवस मनाओ! जिसे मन करे, उसे खिलाओ। जिसे मन करे, हिंदी प्रेमी के नाम पर मंच से उससे जो वह चाहे बकवाओ। पूरा महीना हिंदी मास मानने के बाद भी जिसे शिकायत रहे कि उसने हिंदी मां के चरणों का सोमरस नहीं पिया, उसने हिंदी के नाम पर कुछ नहीं किया। हे ऐसे वैसे, जैसे तैसे मासिक हिंदी प्रेमियो! मैं भी आजकल हिंदी के सूखते तालाब में नाक पकड़ डुबकियां लगा हिंदी के ऋण से उऋण हो रहा हूं। मां बाप के ऋण से उऋण नहीं हुआ तो क्या! सिंतबर महीने अंग्रेजी तक हिंदीमय हो और मैं हिंदीमय न होऊं, यह कैसे हो सकता है भला? उनकी हिंदी छाल छाल तो मुझ अंग्रेजी की देशी वर्जन की हिंदी पात पात। सो मैं देशी अंग्रेज इन दिनों ठेठ हिंदीमय चल रहा हूं। अहा! मेरा मन तन सब हिंदीमय हुआ जा रहा है। इन दिनों मेरे मुख से ऐसे ऐसे भयंकर हिंदी के शब्द निकल रहे हैं कि हिंदी भी उनको सुनकर मलंग हुई जा रही है। इन दिनों मेरे मुख से निकले हिंदी के शब्दों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल सुन लें तो दांतों तले उंगली दबा लें। इन दिनों हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरे तन के हिंदीमय हाव भाव देख लें तो वे पसीना पसीना हो जाएं। हिंदी के कल्याणार्थ आजकल मैं बिन थके हिंदी के हर तरह के हर कार्यक्रम में पूरी शिद्दत से शिरकत कर रहा हूं। भगवान मुझ मासिक हिंदी प्रेमी की तंदुरुस्ती मास भर जैसे तैसे बनाए रखे। हे हिंदी मैया! तेरी सेवा में लीन की बस, यही अंतिम कामना!
अशोक गौतम
ashokgautam001@Ugmail.com

By: divyahimachal rn


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