सम्पादकीय

हिमाचली हिंदी कहानी, विकास यात्रा-35

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-35

हिमाचल का कहानी संसार
विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय
नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘डग्याली की रात’ आंचलिक परिवेश में विन्यस्त कहानी है। प्रस्तुत कहानी में ठाकुर की सामंती मनोवृत्ति और विलासिता मुखर हुई है। ठाकुर डग्याली की रात को निम्न मध्यवर्गीय युवक को बहाना बनाकर उसके घर भेज देता है और उसकी मंगेतर को रात्रि को अपने पास रख लेता है। कहानी में ग्रामीण जीवन में व्याप्त अंधविश्वासों और जाति आधार पर गरीब लोगों का उत्पीडऩ और शोषण ठाकुर जैसे सामंती मनोवृत्ति के लोग करते हैं।

विवेच्य अवधि में राजेंद्र राजन का ‘नवां दशक हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियां’ (1997) शीर्षक से संपादित कहानी संग्रह प्रकाशित है। इसमें हिमाचल प्रदेश के कहानीकारों की चौदह कहानियां- बुखारी (नरेंद्र निर्मोही), ब्राउन कोट (रेखा), खच्चर (केशव), अधमुंडिया राक्षस (योगेश्वर शर्मा), पिंजरा (सुदर्शन वशिष्ठ), ठिठके हुए पल (बद्री सिंह भाटिया), दशानन (महाराज कृष्ण काव), मीछव (सुशील कुमार फुल्ल), बेटा (पीसीके प्रेम), पतलियों और मुंह के बीच (राजकुमार राकेश), छुनकी (नरेश पंडित), छब्बीसवां निशान (एसआर हरनोट), तबादला (हंसराज भारती) और बेठू (राजेंद्र राजन) संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह के फ्लैप पर डॉ. राहुल की कहानी संग्रह से संबंधित टिप्पणी है। उनका कहना है, ‘निश्चय ही राजेंद्र राजन द्वारा हिमाचल के समकालीन सशक्त कथाकारों के उत्कृष्ट सृजनात्मक पक्ष को प्रस्तुत करने का यह सुंदर सार्थक प्रयास मील पत्थर जैसा है।’ पूरोवाक के अंतर्गत कवि एवं कथाकार पीसीके प्रेम का कहना है, ‘नवें दशक में हिमाचल की हिंदी कहानी निरंतर नई जमीन की तलाश में रही है और इस दशक में उसने अपनी खामोशी भी तोड़ी है। इसका एहसास इन कहानियों को पढक़र होता है। सामाजिक यथार्थपरक चेतना और संवेदनशीलता इन कहानियों की ताकत है और दमखम है उनकी शैली और शिल्प में, जो पाठक के आंतरिक-बाहरी विचार प्रवाह में सहज ही घुल मिल जाती हैं।’ ‘नवां दशक एक अवलोकन’ शीर्षक के अंतर्गत संपादक ने विस्तृत भूमिका में हिंदी कहानी के उद्भव, कहानी संबंधी आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी कहानी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर किंचित विचार करते हुए हिमाचल प्रदेश की हिंदी कहानी के इतिहास और विकास को रेखांकित किया है।

नवें दशक के कहानीकारों की कहानियों के चयन का आधार बनाने का उल्लेख करते हुए संपादक राजेंद्र राजन लिखते हैं, ‘यह दशक हिमाचली कहानी में नए तेवर लेकर आया। पहले से सृजनशील कथाकारों की रचनाओं में कथ्य, भाषा, शिल्प को फॉर्म में परिपक्वता झलकने लगी तो नए लेखकों ने अपनी उपस्थिति का एहसास जताना आरंभ कर दिया। रचनाधर्मिता की दृष्टि से देखा जाए तो लेखकों के बारे में मान्यताएं व पहचान अधिक स्पष्ट हुई। अब तक कछुए की चाल से सरकता रहा, कहानी में नई स्फूर्ति और ताजगी का एहसास दिलों दिमाग पर तारी होने लगा। हिमाचली कहानी के लिए यह दशक अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं और परिवर्तनों का मूकदर्शक रहा है।’ संपादक ने भूमिका में संग्रह के संपादन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा है, ‘हिमाचल की हिंदी कहानी में उभरे तेवर तथा प्रवृत्तियों की तलाश ही मूल रूप से प्रस्तुत संकलन का उद्देश्य है।’

इस संपादित संग्रह की यह विशेषता है कि संपादक राजेंद्र राजन ने चौदह कहानीकारों की कहानियों का सारगर्भित विवेचन भी किया है ताकि पाठक के मानस पटल पर लेखक और रचना दोनों के बारे में हल्का खाका उभर सके। इस दशक की कहानियों के संबंध में उनका कथन है, ‘नवें दशक की प्रवृत्तियों पर गौर किया जाए तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि राष्ट्रीय स्तर पर लिखी जा रही हिंदी कहानी में हिमाचली कथाकारों ने हस्तक्षेप करना शुरू किया है क्योंकि इसी दशक में एक दर्जन के आसपास कथाकार राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं के माध्यम से उपस्थिति का एहसास दिलाने लगे। एक ओर रचनाओं में मानवीय रिश्तों और उनमें पनपती विकृतियां हैं तो दूसरी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को मुखरित किया गया है।’ राजेंद्र राजन इस संग्रह के संपादन में कहानीकारों के चयन में भली-भांति सजग हैं, इसीलिए वे कहते हैं, ‘मात्र विभिन्न लेखकों की रचनाएं एकत्र कर उन्हें बाइंड करवा देने से ही कथा संग्रहों के छपने के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो जाती। कालखंड विशेष में कहानी विधा की प्रवृत्तियों का विवेचन व समकालीन हिंदी कहानी में हिमाचली कहानी के योगदान का विवेचन और विश्लेषण भी आवश्यक होता है। इस दिशा में छोटा सा प्रयास मात्र है। दूसरे इस कालखंड के दौरान रची गई चुनींदा और प्रतिनिधि कहानियों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाश में लाने की यह छोटी सी शुरुआत है।’

संदर्भित संग्रह की पहली कहानी ‘बुखारी’ में नरेंद्र निर्मोही ने फौजी जवानों के सतत शोषण की तस्वीर प्रस्तुत की है जिसकी भयावहता मर्म तक दहला देती है। ‘ब्राउन कोट’ में रेखा ने दांपत्य संबंधों के सूत्रों के क्षीण होने के कारणों की तलाश की है तथा अनमेल परिणय संबंधों से उत्पन्न पीड़ा और हताशा का मार्मिक चित्रण है। केशव की ‘खच्चर’ पूंजीवादी समाज, सत्ता और प्रशासन तंत्र के कटु यथार्थ को अनावृत करने वाली कहानी है। यह व्यवस्था की निर्ममता को उद्घाटित करती है जिसमें मनुष्य और खच्चर के मध्य का भेद मिट जाता है। इसमें व्यवस्था की विसंगतियां में पिसते आदमी की पीड़ा मुखर हुई है। योगेश्वर शर्मा ने ‘अंध मुंडिया राक्षस’ में समाज के उस चेहरे को अनावृत्त किया है जिसके कारण सामान्य जन स्वयं को असुरक्षित और असहाय अनुभव करता है। सुदर्शन वशिष्ठ की ‘पिंजरा’ कहानी नगरीय जीवन की नीरसता से गांव में लौटने वाले तोता मैना (बूढ़े पति-पत्नी) का चित्रण है। इसमें नगरीय जीवन से मोहभंग की स्थितियों का निरूपण है। वे अपने संपूर्ण जीवन का प्रत्यवलोकन करते हुए शहर के सुंदर मकान को एक पिंजरे की तरह अनुभव करते हैं। बद्रीसिंह भाटिया की ‘ठिठके हुए पल’ कथ्य की दृष्टि से बहुआयामी कहानी है। इसमें देहाती जीवन को अपने पूरे परिवेश के साथ उभारने की कोशिश है। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के अंतराल और मूल्यगत टकराहट को लेखक ने रेखांकित किया है। पारिवारिक विघटन, गांव से उखडक़र शहर में बसने वाले व्यक्ति अपने परिवार जनों और अपनी जड़ों से पृथक हो जाते हैं, उसका विश्लेषण कहानी में किया गया है। ‘दशानन’ में महाराज कृष्ण काव ने वांबू जैसे धनाढ्य वर्ग की चरित्र सृष्टि के माध्यम से उनके धार्मिक मुखौटों को अनावृत्त किया है। सुशील कुमार फुल्ल की ‘मीछव’ हिमाचल के कबायली क्षेत्र में व्याप्त रूढिय़ों, अंधविश्वासों और जड़ परंपराओं पर तीव्र प्रहार करने वाली कहानी है। पीसीके प्रेम की ‘बेटा’ में मानव संबंधों का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। संज्ञाहीन संबंध संवेदना के स्तर पर कितने प्रगाढ़ हो जाते हैं, इसे यह कहानी रूपायित करती है। राजकुमार राकेश की ‘पतलियों और मुंह के बीच’ कहानी में अभावग्रस्त व्यक्ति के जीवनव्यापी संघर्ष, जिजीविषा और अन्याय का विरोध, आक्रोश, निर्णय की दृढ़ता और दरिद्रता में भी अंधविश्वासों में डूबे रहने की नियति का चित्रण है।

पहाड़ी अंचल के अंधविश्वासों, जादू टोना और रूढिय़ों में डूबे आम जन की नियति को रेखांकित करती है। नरेश पंडित की ‘छुनकी’ दलित विमर्श की कहानी है। ‘छब्बीसवां निशान’ एसआर हरनोट की निर्धन अम्मा और युवा बेटी पर केंद्रित कहानी है। प्रस्तुत कहानी में अभावग्रस्त युवती की उदासीनता, निरीहता और छब्बीसवें वर्ष तक पहुंचने पर चेहरे की काली झाइयां खंडित दर्पण में देखने और बढ़ती उम्र में दीवार में निशान लगाने की प्रक्रिया में टूटती युवती को अपना चेहरा अम्मा के चेहरे की भांति लगता है। उसे ऐसा प्रतीत होता है कि वह कुंवारी विधवा है। यह अभावग्रस्त युवती की नियति को रेखांकित करने वाली कहानी है। हंसराज भारती की ‘तबादला’ राजनीतिक दलदल में पिसते आदमी की पीड़ा को रेखांकित करती है। राजेंद्र राजन की ‘बेठू’ शीर्षक कहानी में बंधुवा मजदूरी करने को अभिशप्त लोगों की पीड़ा को मुखरित किया है। गांव में प्रधान आदि धन संपन्न व्यक्ति सामंतीय मनोवृति के अवशेष हैं जो हाशिए के समाज का पुश्त दर पुश्त से शोषण कर रहे हैं। कहानी में जग्गू ऐसा ही चरित्र है जिसका नाम बाल्यकाल में जगदीश होता है। जैसे ही वह बड़ा होता है, लोग उसका नाम बिगाड़ते चले गए जगदीश से जग्गी, जग्गी से जग्गू, फिर जग्गू से जगड़ा नाम बदलने के साथ उसकी नियति भी उसी तरह बदलती जाती है और वह बंधुआ मजदूर का जीवन जीने के लिए अभिशप्त होता है। उसकी पहचान एक बेठू के रूप में ही होती है। उसके बाप दादा बंधुवा मजदूरी करते रहे। उन्हें कोई हक नहीं है कि वे पैरों में जूता या सिर पर टोपी पहनें। ऐसा करना परंपरा का उल्लंघन माना जाता है। राजेंद्र राजन ने प्रस्तुत संग्रह का संपादन वस्तुनिष्ठ दृष्टि और कहानी की गहरी समझ से किया है। वास्तव में यह संकलन विवेच्य अवधि का प्रतिनिधि कहानियों का श्रेष्ठ गुलदस्ता है। कथाकार राजकुमार के दो कहानी संग्रह ‘जाल’ (1990) और ‘वेटिंग रूम’ (1997) शीर्षक से प्रकाशित हैं। ‘जाल’ में उनकी आठ कहानियां- प्यास, चि_ी, घेराव, वसंतोत्सव, भालू, जाल, व्यभिचारी और तलाश संगृहीत हैं। ‘वेटिंग रूम’ में उनकी दस कहानियां संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह में कुछ नयी कहानियों के साथ ‘जाल’ संग्रह की चार कहानियों को भी इसमें सम्मिलित किया है। ‘वेटिंग रूम’ में दस कहानियां- प्यास, चि_ी, गैंडा, घेराव, भालू, वेटिंग रूम, शिराएं, दु:स्वप्न, घुटन और दंशित संगृहीत हैं। ‘प्यास’ शीर्षक कहानी नगर बोध के फलस्वरूप संबंधों में आए अजनबीपन और अकेलेपन को नारायण और बुढिय़ा के जीवन के कथा सूत्रों के माध्यम से निरूपित किया है। नगरों में रहते हुए भी आदमी भीड़ में भी अकेला है। बुढिय़ा और युवक नारायण दोनों की एक सी नियति है। पार्क में दोनों एक-दूसरे के निकट आते हैं। रेस्टोरेंट में कॉफी पीते हैं।

नारायण को बुढिय़ा के जीवन की उस सच्चाई का बोध होता है जिसके कारण वह परिवार में रहते हुए भी एकाकी जीवनयापन करने के लिए अभिशप्त है। बेटे ने अपनी मर्जी से विवाह करके अपनी गृहस्थी बसाई है। दोनों नौकरीपेशा हैं और दोनों कमाते हैं, रात गए लौटते हैं। उन्होंने बेटे राहुल को हॉस्टल में डाल रखा है। बुढिय़ा कहती है, ‘मैं घर में रहूं, दीवारें खाने को दौड़ती हैं। अब तुम भी चले जाओगे तो कॉफी हाउस का ही सहारा रह जाएगा।’ बुढिय़ा के आत्मीय संबंध और मन की विह्वलता युवक को आद्र्र कर देती है। वह अपने वृद्ध सेवानिवृत्त, गांव में एकाकी रहने वाले पिता के अकेलेपन की विवशता को अनुभव कर गांव में लौटने का निर्णय लेता है। ‘चि_ी’ शीर्षक कहानी हाशिए पर स्थित अभावग्रस्त जन की पीड़ा को रेखांकित करने वाली कहानी है। राजनीति और प्रशासन तंत्र के क्रूर चेहरे को अस्थायी रूप में आजीविका के लिए खोखे लगाने वाले लोगों के खोखों को उजाडऩे, प्रतिरोध करने पर पुलिस द्वारा निर्ममता से पिटाई, युवकों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने और दुकानों से सामान को उड़ाने की स्थितियों का निरूपण है। -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : आलोचनात्मक शोध है ‘गुलेरी की सम्पूर्ण कहानियां’
हिन्दी साहित्य जगत में किसी रचनाकार की निष्पक्ष या कड़ी आलोचना को प्राय: उसी दृष्टि से देखा जाता है, जैसे आजकल सत्ता द्वारा पनौती शब्द को किसी नेता से जोडऩे पर देखा जा रहा है। हिन्दी साहित्य जगत में चुनाव आयोग जैसी संस्था तो है नहीं, जहां ऐसा करने पर किसी के विरुद्ध कोई शिकायत की जा सके। पर ऐसा करने पर आलोचक या समीक्षक को अपने को हाशिए पर धकेले जाने का डर अवश्य लगा रहता है। फिर जब आलोचना की कसौटी पर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जैसा साहित्यकार हो तो यह डर ईडी के डर से अधिक विकराल हो उठता है। लेकिन इसके बावजूद डा. सुशील कुमार फुल्ल ने यह कार्य करने का साहस सफलतापूर्वक किया है। किसी ऐसे पुरखे साहित्यकार, जो केवल अपनी एक रचना ‘उसने कहा था’ के बल पर हिन्दी साहित्य जगत की भित्ति में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज करवा चुके हों, निष्पक्ष होकर न केवल उनकी इस रचना की आलोचना करना, बल्कि उनके इधर-उधर बिखरे कार्य तथा उनकी उस अधूरी कहानी ‘हीरे का हीरा’ के दो स्वप्रकाशित प्रारूपों के साथ अपनी शोध पुस्तक ‘चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की सम्पूर्ण कहानियां’ में सहेजना कठिन श्रम और जीवट का कार्य है। ध्यात्व है कि इससे पहले के साहित्य शोधकारों और आलोचकों ने ‘हीरे का हीरा’ को चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की रचना मानने से ही इंकार कर दिया था। जबकि डा. फुल्ल कहते हैं कि इस कहानी का गुलेरी द्वारा हस्तलिखित अधूरा प्रारूप उपलब्ध है। पश्चिमी साहित्य जगत में केवल उन्हीं रचनाओं को कालजयी माना जाता है, जो अपने अस्तित्व में आने के सौ साल बाद भी समाज में गुनी-बुनी जाती रहें। नहीं तो जुगाड़ के साहित्य में रचनाकार दुनिया छोडऩे तक प्रचार के माध्यम से छाए रहते हैं और फिर उनके काल के गाल में समाने के उपरान्त उनकी रचनाएं भी व्योम में विलीन हो जाती हैं। फिर भारत में जुगाड़ का गठजोड़ नया नहीं। गुलेरी के अवसान के 100 साल बाद उनकी रचनाओं के निष्पक्ष मूल्यांकन का बीड़ा उठाना उस साहित्य जगत में अपना अलग महत्व रखता है, जहां जुगाड़ की जुगलबंदी अक्सर सामने आती रहती है। यूं भी प्रतिमान घडऩे में माहिर देश में किसी भी क्षेत्र या विधा के आरम्भ में ही किसी भी व्यक्ति के लिए ऐसी उपमाएं घड़ दी जाती हैं कि आने वाली नस्लें उससे आगे कुछ सोच ही नहीं पातीं। अन्यथा समय विशेष में किसी समाज में किसी प्रतिभा की जो भी उपलब्धि सामने आती है, कुछ समय बाद उसी समाज में उससे बड़ी प्रतिभा जन्म ले लेती है। किन्तु भारत में इसके विपरीत राष्ट्रपिता, स्वर साम्राज्ञी, उडऩ परी, उडऩ सिक्ख, गॉड ऑव क्रिकेट जैसी उपमाएं आने वाली पीढिय़ों की प्रतिभा को निखरने का सही अवसर नहीं देतीं। साहित्य जगत में ऐसी उपमाएं घडऩे से अन्य प्रभावशाली रचनाओं के साथ वह न्याय नहीं हो पाया है, जिसकी वह हकदार हैं। शायद इसी तथ्य को डॉ. फुल्ल ने अपने प्रस्तुत शोध में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

अन्यथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर अभी तक जिन शोधकर्ताओं ने चन्द्रधर शर्मा गुलेरी पर जो कुछ कहा है, वह प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं। गुलेरी पर साल 1983 में शोध प्रकाशित करने वाले डॉ. कृष्ण गोपाल पीयूष गुलेरी तो अंत तक उनकी हस्तलिखित अधूरी कहानी ‘हीरे का हीरा’ को उनकी कहानी मानने से इंकार करते रहे। साहित्य भारती, दिल्ली से प्रकाशित अपनी प्रस्तुत पुस्तक को डॉ. फुल्ल ने पांच भागों में बांटा है। पहले खंड को जिन आठ अध्यायों में विभाजित किया गया है, उनमें गुलेरी जी एक नजर में, उपोद्घात, हिन्दी कहानी और हिमाचल, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जीवन वृत्त, अमर कथा शिल्पी, गुलेरी जी का कहानी संसार, गुलेरी की चौथी कहानी : हीरे का हीरा और कहानियों का मूल पाठ शामिल है। दूसरे खंड में उनकी आधुनिक शैली की चार कहानियां, तीसरे खंड में पराम्परागत शैली की तीन कहानियां, चौथे खंड में 19 कथाएं, लघुकथाएं और दृष्टांत और अंत में परिशिष्ट शामिल हैं। इस तरह उन्होंने कुल 26 रचनाओं को गुलेरी के खाते में जोड़ा है। डा. फुल्ल का यह प्रयास गुलेरी जी के अल्प जीवन काल के चलते अपेक्षाकृत छोटे रचना संसार के सही मूल्यांकन और भविष्य में विभिन्न कोणों से उसके शोध में प्रभावी भूमिका निभाएगा। डा. मनोहर लाल द्वारा अधूरी कहानी ‘हीरे का हीरा’ को पूरा करने की चुनौती को स्वीकार करते हुए डॉ. फुल्ल ने इसके जो दो प्रारूप प्रस्तुत किए हैं, वे दोनों प्रभावी बन पड़े हैं। सबसे बड़ी चुनौती थी गुलेरी की भाषाए शैली, कथ्य और विषयवस्तु को पकड़ते हुए कहानी को पूरा करना, जिसे उन्होंने मूल लेखक से बेहतर तरीके से निभाया है, वह भी दो बार। हालांकि मैं डॉ. फुल्ल के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हूं कि उनकी सभी चारों कहानियां मूलत: मांसल प्रेम की कहानियां हैं। उनकी कालजयी कहानी को मैं इस श्रेणी से बाहर रखना चाहूंगा। मेरा अपना मानना है कि ‘उसने कहा था’ भले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कहे अनुसार ‘प्रेम पर कर्तव्य भावना की विजय की कहानी’ न हो लेकिन यह मांसल प्रेम की कहानी भी नहीं है। उनकी अन्य कहानियों में केवल ‘हीरे का हीरा’ के दोनों ड्राफ्ट इक्कीस प्रतीत होते हैं, जिसका सारा श्रेय डॉ. फुल्ल को जाता है। ‘सुखमय जीवन’ और ‘बुद्धू का कांटा’ लिखने के लिए लिखी गई सामान्य कहानियां प्रतीत होती हैं। कहीं-कहीं गुलेरी की अति प्रशंसा में कहे गए डॉ. फुल्ल के शब्द उस बोझ से बचने का प्रयास प्रतीत होते हैं, जो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और अन्य विद्वानों ने गुलेरी के साहित्य संसार पर लाद कर उसे अपेक्षा से अधिक भारी बना दिया है। लेकिन इसमें संशय नहीं कि परम्परागत कहानियों और कथाओं में गुलेरी की शैली चुटीली, व्यंग्य-विनोद तथा हास-परिहास से भरी हुई है, जो पाठकों को सोचने पर विवश करती है। हार्ड बाइंडिंग में 185 पृष्ठों की 595 रुपए मूल्य की यह पुस्तक शोधार्थियों के अलावा सामान्य पाठकों के लिए भी रुचिकर है, जो दो युगों को आपस में सशक्त रूप से जोड़ती है। -अजय पाराशर

कविता : आकांक्षा
उच्छृंखल हो रही मन-आकांक्षा
तोड़ रही दम मर्दित मर्यादा
सफेद पहरुवे! लोकतंत्र में
आदमखोर! भक्षण को आमादा
ऊसर मन संजोया जो भी पेड़
बरगद बन, धूप रोके बैठा
ठिठुरता, तपता जनमानस
नेता धूप तो कहीं छांव बेचता
लोकतंत्र अब तंत्र नहीं, बस
खोखला मिथ झुनझुना लगता
दम्मी शब्दजाल मोहपाश बंध
मतदाता हर बार ठगा लगता
शीशे के धर वसन अपना
दूसरों पर पत्थर बरसाता
ईष्र्या द्वेष, लालच सरंत्तसदा
घृणित कृमि कीचड़ उछालता
श्रमिक परिश्रम बूंद-बूंद सींचे
लुण्ठक अनायास ही हड़पता
दोषारोपण के निर्लज्ज प्रांगण
बिन डकारे सदा पल्लु झाड़ता
क्यों? नपुंसक बन गए सभी
शक्ति प्राप्त अधिकारी राजनेता
बना है कायरता का परिवेश क्यों
कहीं सांठगांठ से तो नहीं होता?
-डा. शंकर लाल वासिष्ठ


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