महिला हक-कत्र्तव्यों की बात साथ-साथ हो

अभी हाल ही में 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर बड़ी-बड़ी संगोष्ठियां और भव्य आयोजन किए गए और इन नवरात्रों में मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा की जा रही है, लेकिन ये आयोजन क्या सिर्फ एक दिन और कुछ विशेष दिनों के ही मोहताज हैं? एक महिला होने के नाते मुझे लगता है कि काश हर दिन महिला व पुरुष की समानता के रूप में मनाया जाता। समाज की मूल समस्या ही यही है कि किसी वर्ग विशेष को एक दिन में समेटकर पूजनीय बना दिया जाए और शेष दिन उन्हें स्वयं अपने अस्तित्व व सम्मान के लिए समाज से ही लडऩा पड़ता है। जब भी कोई महिला हिम्मत कर दबी जुबान से अपने खिलाफ हुई हिंसा की बात करती है तो उसी के चरित्र पर सवालिया निशान लगा दिया जाता है। अभी हाल ही में दक्षिण भारत की जानी-मानी अभिनेत्री खुशबू सुंदर ने कहा कि जब वह 8 वर्ष की थी तब पिता ने यौन शोषण करना शुरू किया था। मुझे इस बारे में बात करने में कई साल लग गए। शायद आज वो समाज में इस स्थिति में है कि अपनी बात बिना किसी संकोच के सबके सामने रख सकती है। लेकिन न जाने कितनी बच्चियां हमारे आसपास, कितनी तरह की ज्यादतियों का शिकार हो रही हैं। उन बच्चियों की आवाज या तो दबा दी जाती है और कुछ की तो स्वयं ही खामोश हो जाती है।
एक शिक्षिका होने के नाते मैं हर रोज़ कई बच्चियों से मिलती हूं और एक बच्ची की मानसिकता की व्यथा, अपने आप में एक पाठशाला है। विशेषकर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाली बच्चियों के लिए कक्षा तक पहुंचने की जद्दोजहद और उसके पीछे का संघर्ष समाज की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है। यहां तक कि उनकी यात्रा में कई सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पाबंदियां उन्हें मानसिक तौर पर शोषित कर चुकी होती हैं। इस मानसिक शोषण से बाहर निकल कर जब कुछ शिक्षित महिलाएं किसी भी व्यवसाय की तरफ अग्रसर होती हंै तो समाज फिर उनके आचरण से उसके चरित्र का प्रमाण पत्र देना शुरू कर देता है। इस संदर्भ में कृपया करके लिंग आधारित संकुचित सोच से बाहर निकलिए। आधी आबादी को सीमाओं में न बांधकर उनकी प्रगतिशील उड़ान में सहायक बनिए।
एक अन्य पहलू यह भी है कि परिवार का पढऩे वाली लड़कियों के प्रति और कामकाज़ी महिला के प्रति असुरक्षा की भावना का डर भी उन्हें सताता है। न जाने कितनी बच्चियों व महिलाओं के साथ रेप जैसी घिनौनी वारदात, उन्हें फिर बंद कमरे में रहने पर मजबूर कर देती है। मेरी कई छात्राओं के माता-पिता जब मुझसे अपनी बच्चियों की सुरक्षा के बारे में बात करते हैं तो मेरे पास भी आश्वासन के अलावा और कोई जवाब नहीं होता। क्या सरकार के कड़े कानून इस हिंसा को रोक सकते हैं? शायद नहीं । समाज को ही अपना नज़रिया बदल कर महिलाओं को उनकी सुरक्षा की गारंटी देनी होगी। इस गारंटी के लिए व्यक्तिगत विचार रखने वाले पुरुष, सामूहिक तौर पर उनकी सुरक्षा के लिए आवाज़ उठाएं तो कुछ बात बन सकती है। ये आवाज सिर्फ घिनौनी वारदात होने के बाद तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए।
एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जब निर्णय लेने के पदों व पक्षों की बात आती है तब निम्न स्तर तक महिलाओं की स्थिति में कुछ सकारात्मकता है। लेकिन उच्च स्तर तक उनकी स्थिति में समाज के अन्य पक्षों द्वारा स्वयं ही प्रश्न चिन्ह लगा दिए जाते हैं । जब तक समानता के आधार पर अवसर नहीं मिलेंगे तब तक लिंग के आधार पर योग्यता देखना सरासर सही बात नहीं है। मेरी एक सहेली को सिर्फ इस बात से एक फर्म के उच्च पद से हटा दिया गया क्योंकि उसे शाम होते ही अपने परिवार की जिम्मेवारियों के लिए समय निकालना था। वो रात को नौ या दस बजे तक सिर्फ फर्म को समय नहीं दे सकती थी। इसी सामंजस्य के बीच उसकी योग्यता व दक्षता की अवहेलना कर दी गई। लेकिन सही मायने में आज प्रगतिशील समाज को आयना देखना है तो हमें पुरुष व महिला की कार्यस्थिति को बराबर बांटना होगा।
इस विषय के बहुत से आयाम हैं, लेकिन आज की युवा लडक़ी अपने सपनों के लिए तेजी से भाग रही है, कभी-कभी पटरी से उतर कर, उस दिशा में चलने लग गई है जहां काले अंधेरे के अलावा कुछ भी नहीं है। यही कारण है कि श्रद्धा जैसी कई युवा प्रगतिशील लड़कियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। इन उड़ती हुई चिडिय़ा को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी इन गलतियों से लाखों लड़कियों जिन्होंने अभी उडऩा भी नहीं सीखा, उनके पंख पहली ही काट दिए जाते हैं। आज बात यह है कि खुलेपन ने महिलाओं के लिए स्वयं ही एक समस्या पैदा कर दी है। कुछ प्रतिशत लड़कियां जिन्हें दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत करना था और समाज में उनके सम्मान के लिए लड़ाई लडऩी चाहिए थी, वे स्वयं ही गुमनाम जिंदगी जीना पसंद कर रही हैं। इसके साथ-साथ समाज की और कई रुकावटें जैसे हिंसा, असमानता और असुरक्षा और तेजी से फैल रही हंै। इसलिए महिला को आज स्वयं अपनी मजबूती के लिए खड़े होना होगा। अपना स्वरूप, सत्कार और स्वाभिमान आज स्वयं हमारे हाथ में है। ऐसा न हो कि बंद खिड़कियों से आ रही मद्दम रोशनी पर भी जालियां लगा दी जाएं और हमारी प्रतिमूर्ति नवरात्रों में सिर्फ पूजन के लिए प्रयोग की जाए। यह पूजन पूरे अधिकार व कत्र्तव्यों से स्वीकार करना होगा।
डा. निधि शर्मा
स्वतंत्र लेखिका
By: divyahimachal


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