क्यों हारे हिमाचली कलाकार

By: divyahimachal

बहुत पहले कुल्लू दशहरा के सांस्कृतिक मंच से बेदखल होने पर नाटी किंग ठाकुर दास राठी के आंसू छलके थे और इस बार रामपुर की लवी ने हिमाचली गायक एसी भारद्वाज को परास्त कर दिया। लोक गायक का गुस्सा फूटना स्वाभाविक है और जिस तरह सोशल मीडिया पर हिमाचल की सांस्कृतिक नौटंकी का पर्दाफाश हो रहा है, उसे सामान्य नहीं माना जा सकता। कुछ तो रही होगी तेरी बेरुखी, वरना हम तेरी ही गलियों में क्यों चीखते। उम्मीद है एसी भारद्वाज जैसे लोकगायक का क्रंदन सरकार के गलियारों में सुना जाएगा। आश्चर्य यह कि जब दशहरा की सात सांस्कृतिक संध्याओं में से छह लूट कर बाहरी कलाकारों में बांट दी गई थी, तो भी खूब हल्ला हुआ था, लेकिन संस्कृति के हिमाचली कान अब सियासी हैं या फरेबी हैं जो कुछ सुनना नहीं चाहते। अब यही आरोप रामपुर की लवी की हकीकत में, स्थानीय कलाकारों की प्रताडऩा के सबूत दे रहा है। बाकी सांस्कृतिक समारोह भी इसी परंपरा के गवाह बन रहे हैं यानी जिस हिमाचली संस्कृति के उत्थान के नाम पर समारोह हो रहे हैं, वहां स्थानीय कलाकार ही हर बार हार रहा है। बेशक इन सांस्कृतिक समारोहों की संख्या लगातार बढ़ रही है और बढ़ रहा है भारी बजट का जलवा, लेकिन सारे तामझाम के नीचे न हिमाचल की संस्कृति का संवद्र्धन और न ही स्थानीय कलाकार को मिल रही इज्जत। सांस्कृतिक समारोहों के आय-व्यय का हिसाब पहले पारदर्शिता के अभाव में एक ऐसा दस्तूर बन गया है, जहां ये स्थानीय विधायक या मंत्री की अपनी शानो शौकत में प्रशासनिक मजदूरी करवा रहा है।
मंच पर न कला-संस्कृति विभाग की कोई ईमानदार कोशिश और न ही प्रशासन की कोई जवाबदेही। बस एक प्रदर्शन है थोड़ा सा हल्ला गुल्ला और मनपसंद के बाहरी कलाकारों को रसगुल्ला। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि सांस्कृतिक समारोह बिना किसी नियमन, उद्देश्य-प्रक्रिया प्रणाली और पारदर्शिता के सिर्फ राजनीतिक पगडिय़ों का सवाल हो गए हैं। ऐसे-ऐसे समारोह राज्य स्तरीय हो गए या ऐसे आयोजन स्थल चुन लिए गए, जो कला संरक्षण के बजाय सियासी चाटुकारिता के पर्याय बन गए। प्रदेश की किसी भी सरकार ने आज तक मंदिरों की आय, वार्षिक मेलों व सांस्कृतिक समारोहों के आय-व्यय को एक लड़ी में पिरोकर नहीं देखा, वरना ये सारे आयोजन केवल तमाशा न बनते। होना यह चाहिए कि प्रदेश के कला, संस्कृति एवं भाषा, पर्यटन तथा सूचना एवं जनसंपर्क जैसे विभागों को मिला कर एक सशक्त विभाग की परिकल्पना करनी चाहिए और जिसके तहत एक मेला विकास प्राधिकरण, एक मंदिर विकास प्राधिकरण तथा कला एवं संस्कृति की एक स्वतंत्र अकादमी होनी चाहिए, जबकि भाषा विभाग को शिक्षा विभाग के सुपुर्द कर देना चाहिए या इसके लिए अलग से अकादमी होनी चाहिए। प्रदेश में सौ के करीब बड़े-छोटे वार्षिक मेले, करीब दर्जन भर सांस्कृतिक समारोह तथा तरह-तरह के धार्मिक अनुष्ठान हो रहे हैं, जिनके तहत लोक कलाओं, कलाकारों, व्यापारियों और भजन मंडलियों का संरक्षण हो सकता है। अगर हम इन तमाम आयोजनों के तहत अब तक करीब दो सौ करोड़ भी खर्च कर रहे हैं, तो यह आय अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर रही।
आश्चर्य यह कि हिमाचल में कोई ऐसा कला केंद्र नहीं जहां नियमित कलाकारों को अवसर मिलें। ऐसे में प्रदेश के लगभग छह से आठ मंदिर परिसरों को कला केंद्र मान कर इनके साथ सभागार व प्रदर्शनी स्थल विकसित करने होंगे ताकि श्रद्धालुओं को हर सायं सांस्कृतिक संध्याएं देखने सुनने को मिल सकें। वार्षिक मेलों व सांस्कृतिक समारोहों के आयोजन अगर मेला प्राधिकरण के तहत होते हैं, तो हिमाचल का एक ऐसा कैलेंडर सामने आएगा जो हर लोक कलाकार को उसके कद के मुताबिक अवसर प्रदान करेगा। तमाम कलाकारों की रैंकिंग करके प्राधिकरण इन्हें वार्षिक अनुबंध के आधार पर मेले, सांस्कृतिक या धार्मिक आयोजन आबंटित कर पाएगा। इससे न बंदरबांट रहेगी और न ही कलाकारों की उपेक्षा होगी। इतना ही नहीं पर्यटक सीजन और विभिन्न पर्यटन के अवसरों के दौरान सांस्कृतिक आयोजनों की कई नई श्रृंखलाएं जोड़ी जा सकती हैं, जबकि प्रदेश के प्रमुख शहरों में संगीत सम्मेलन, लोक कलाकार, महोत्सव व रेडियो-टीवी कलाकार सम्मेलन भी करवाए जा सकते हैं। दरअसल मेलों, सांस्कृतिक व धार्मिक समारोहों के वर्तमान आयोजन केवल सियासी झंडियां हैं, जहां बाहरी कलाकारों को दलालों द्वारा बुला कर समय, धन और औचित्य को बर्बाद किया जा रहा है। हिमाचल के लोक संगीत, नाटक व अन्य कलाओं के साथ यह नाइनसाफी ही है।