कर्नाटक का ‘कोटावादी’ चुनाव

By: divyahimachal
कर्नाटक में चुनाव की तारीख घोषित हो चुकी है। 10 मई को एक ही चरण में मतदान होगा और 13 मई को जनादेश सार्वजनिक कर दिया जाएगा। पहली अग्निपरीक्षा भाजपा की है, क्योंकि वह सत्तारूढ़ है। दक्षिण भारत में पार्टी के विस्तार और चुनावी स्वीकृति के लिए यह चुनाव जीतना अनिवार्य है। सीधा मुकाबला कांग्रेस से है, जो यह चुनाव जीत कर अपनी प्रासंगिकता साबित करना चाहेगी और भाजपा का एक दुर्ग ढहा कर 2024 के लिए अपनी दावेदारी और मानसिक तैयारी मजबूत करना चाहेगी। कर्नाटक 2023 का बड़ा राज्य है, जहां 224 विधानसभा सीटों के लिए जनादेश प्राप्त करना है और 28 लोकसभा सीटों की ज़मीन तैयार करनी है। भाजपा और कांग्रेस की पहली कोशिश स्पष्ट जनादेश लेने की होगी, लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि जद-एस भी चुनावी मैदान में है। पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा करीब 90 साल के हो चुके हैं, लिहाजा इसे अपना आखिरी चुनाव बता रहे हैं। लोगों की संवेदनाएं उनसे भी जुड़ी हैं। वैसे 1985 के बाद से कर्नाटक में सत्ता पक्ष की वापसी नहीं हुई है। हिमाचल में नाकामी के बाद भाजपा कर्नाटक में भी ‘रिवाज़ बदलने’ पर आमादा है। चूंकि मौजूदा बोम्मई सरकार के खिलाफ कोई लहर-सी स्थिति नहीं है, लिहाजा भाजपा की रणनीति में जातीय आरक्षण ऐसा मुद्दा है, जिसके जरिए धु्रवीकरण के हालात पैदा किए जा सकते हैं। मौजूदा भाजपा सरकार ने दलितों का आरक्षण 15 फीसदी से बढ़ा कर 17 फीसदी और अनुसूचित जनजाति का कोटा 5 फीसदी से 7 फीसदी किया है। बीते शुक्रवार मुसलमानों का कोटा 4 फीसदी कम कर दिया गया।
यह कोटा कर्नाटक के ताकतवर और आर्थिक रूप से समृद्ध जातीय समूहों-लिंगायत और वोक्कालिंगा-में बांट दिया गया है। इन समूहों का ओबीसी आरक्षण के तहत पहले से ही कोटा तय है। भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य एवं पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा लिंगायतों के कद्दावर, स्वीकृत नेता हैं। यकीनन सरकार के इन फैसलों से कर्नाटक का जातीय संतुलन जरूर गड़बड़ाएगा, लिहाजा असंतोष और विरोध-प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं। मुख्यमंत्री आवास पर पथराव तक किया जा चुका है। हालांकि मुसलमानों को ईडब्ल्यूएस वर्ग में आर्थिक आरक्षण के तहत कोटा मिलता रहेगा। कर्नाटक में लिंगायत 17 फीसदी हैं और वोक्कालिंगा 15 फीसदी हैं। ओबीसी करीब 35 फीसदी हैं। भाजपा की रणनीति इन जातीय समूहों के अधिकतम वोट हासिल करने की है। उनके जरिए वह कमोबेश 125 सीटें जीतने के गणित पर काम कर रही है। हालांकि उसका चुनावी लक्ष्य 150 से अधिक सीटें जीतने का है। भ्रष्टाचार, विकास, धर्मांतरण, धु्रवीकरण, महंगाई, राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, बेरोजग़ारी आदि भी प्रासंगिक चुनावी मुद्दे रहेंगे, लेकिन जातीय आरक्षण सबसे संवेदनशील मुद्दा है, क्योंकि यह आम आदमी के हितों और बहुआयामी भविष्य से जुड़ा है। भाजपा ने 2019 में कांग्रेस-जद (एस) की साझा सरकार में तोडफ़ोड़ कर, विधायकों के पालाबदल करा अपनी सरकार बनाई थी, तो उसने सांप्रदायिकता के साथ-साथ जातीय आरक्षण के मुद्दे को भी उबाले रखा।
हिजाब, धर्मांतरण और टीपू सुल्तान की विरासत के जरिए धु्रवीकरण को भी जिंदा रखा। इस तरह भाजपा हिंदू वोट बैंक को एकजुट रखना चाहती थी और विभिन्न जातीय समूहों के वोट को बांट देना चाहती थी। उसमें कमोबेश वह सफल रही। 1970 के दशक में कांग्रेस नेता देवराज अर्स ने ओबीसी, दलित, जनजाति और अल्पसंख्यकों को लामबंद करने में कामयाबी हासिल की थी, नतीजतन लिंगायत और वोक्कालिंगा के राजनीतिक वर्चस्व को बेअसर किया था। अर्स का फॉर्मूला 1980 के दशक में, जनता पार्टी के उभार के बाद, पिट गया। उसके बाद लिंगायत बुनियादी तौर पर भाजपा को और वोक्कालिंगा जद-एस को समर्थन देते रहे हैं। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वोक्कालिंगा का एक मोटा हिस्सा भाजपा की तरफ भी आया है। दलित भी भाजपा की ओर धु्रवीकृत हुए हैं। कांग्रेस को कुछ दलितों और ज्यादातर अल्पसंख्यकों के वोट का ही सहारा है। भाजपा अब जातीय आरक्षण के जरिए, जातियों को एक-दूसरे से भिड़ा कर, अर्स के फॉर्मूले का ‘भगवा संस्करण’ पेश करना चाहती है। चुनाव ही तय करेंगे कि भाजपा और अन्य दलों की राजनीति किस कदर फायदे देती है। इस चुनाव में जो दल जीत हासिल करेगा, उसे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल होगी। कड़ा मुकाबला देखने को मिल सकता है।
