कब तक छिपोगे कालिया

ज़रूरी नहीं कि हर बार सिर्फ गब्बर ही कालिया के पीछे पड़े। उससे रामगढ़ का हिसाब पूछे कि कितने आदमी थे। कालिया ओसामा की तरह कहीं भी जा छिपे, गब्बर उसे ढूंढ ही लेता है। ख़ासकर, जब वैश्विक गांव की परिकल्पना साकार हो चुकी हो। ऐसे में किसी भी कालिया का छिपना या अपने अतीत से भागना, उस नशेड़ी की तरह मुश्किल है जिसे ड्रग्स की लत पड़ जाती है। प्राचीन या मध्य काल की बात और थी। जब राजा काना होता था, पर उसके चारण, भांड या चालीसा लिखने वाले कहते थे कि राजा सबको एक आंख से देखता है। चंद बरदाई की पृथ्वी राज चौहान द्वारा मोहम्मद ग़ौरी को तीर से मारने की कथा को अमर करने वाले उसे शब्दभेदी बाण से जोड़ते हैं। पर मुझे आज तक यह पता नहीं चल पाया कि ये शब्दभेदी बाण युद्ध में कहां छिप जाते थे और कोई गब्बर क्यों उन्हें आज तक ढूंढ नहीं पाया। क्या बाणों की गति गोली से कम थी या शब्दभेदी बाण की कथाएं भी पौराणिक हैं। संभव है कि युद्ध में संसद की तरह शोरगुल ज़्यादा होने से शब्दभेदी बाण इतने कनफ्यूज़ हो जाते हों कि सभापति की तरह उन्हें यह होश ही न रहता हो कि जिन माननीयों के व्यक्तव्यों से शब्द निकालने थे, वे सत्ता पक्ष के थे या विपक्ष के। आज भी जब विज्ञान की बात होती है तो माननीय गोबर और गौमूत्र की बात करते नजऱ आते हैं या उन्हें वेदों में जहाज़ उड़ते हुए दिखते हैं। गब्बर को कालिया मिल जाता है, लेकिन उन्हें आज तक वेदों में जहाज़ उड़ाने का फार्मूला नहीं मिल पाया। सत्य पहले केवल हरा ही नजऱ आता था। वजह सत्ता के पास सिर्फ इसी रंग का चश्मा था और राज्य के हाट-बाज़ारों में केवल यही चश्मा बिकता था। पर जब से दुनिया एक हुई है, किसी भी रंग का चश्मा कहीं से भी खऱीदा जा सकता है।
अब सत्य की आंख केवल सीधा ही नहीं, तीन सौ साठ डिग्री देखती है। सत्य की आंख सारी घटनाओं को सामने रख देती है। हो सकता है कि कालिया किसी अंग्रेज़ी पत्रकार को दिए गए साक्षात्कार में कहे कि पहले मीडिया पर ध्यान नहीं दिया था, उसे कंट्रोल नहीं किया था, इसलिए सत्य को छिपा नहीं पाए। पर अब ऐसा नहीं। अपने अड्डे का सारा का सारा मीडिया उसकी गोदी में है। वह कभी भी उसकी चोटी-टोपी खींच कर उसके विज्ञापन रोक सकता है, उसके अख़बार या चैनल खऱीद सकता है। सत्य की हज़ारों मिसालें सामने होने के बाद भी हर युग के कालिया क्यों भूल जाते हैं कि सत्य को झूठ के ढेर में छिपाने की लाख कोशिशों के बावजूद वह ख़ुशबू की तरह बाहर आ ही जाता है। कुरसी चाहे अक्सर उसका दिमाग़ खराब कर दे, पर समय का गब्बर देर-सवेर उसका इलाज कर ही देता है। देसी मीडिया को गोद में बिठाने और न बैठने वालों को लतियाने के बाद भी झूठ को सत्य के चौबीस कैरेट की परत में जड़ कर नहीं रखा जा सकता। हो सकता है कि झूठ पर सत्य का मुलम्मा चढ़ाया जा सके, लेकिन समय की कसौटी पर कसते वक्त झूठ का नकाब अच्छे दिनों की तरह उतरने में देर नहीं लगती। बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगाने से जो हो चुका है, उसे गोधरा में नहला कर पवित्र नहीं बनाया जा सकता। पर लगभग दो दशकों बाद इस डॉक्यूमेंट्री को अब प्रसारित करने और बैन करने के पीछे अगले साल के पावन चुनावी महाकुंभ के स्नान में डुबकियां लगाने के बाद कौओं के सफेद होने का जुगाड़ भी हो सकता है। क्योंकि कालिया ने जब से प्रत्यक्ष तौर पर झूठ बोलना बंद किया है, देसी कौओं ने काटना बंद कर दिया है। अब कालिया भी सफेद है और कौए भी। पर कालिया झूठ के कौओं पर चाहे कितना भी पॉउडर लगा कर, उन्हें गोरा दिखाने की कोशिश करे, उनके शरीर को झटकते ही सारा पॉउडर गिरने के बाद कौए असली रूप में बाहर आ जाते हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
By: divyahimachal
