मैनेज करने की कला

 
मैनेज करने की कला कई व्यक्तियों में अद्भुत होती है। उसका लोहा मानना पड़ता है। जैसे मैं दीपक जी का मानता हूँ। दीपक जी एकदम चलते पुर्जे हैं। बिगड़ा हुआ काम बना दें और बनता हुआ काम बिगाड़ दें, दोनों कलाओं में सिद्धहस्त हैं। मैनेज करने की उनकी कला की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। और देखा जाये तो दीपक जी इसी कला से कमा-खा रहे हैं। टिपिकल से टिपिकल व्यक्ति को सांचे में उतार दें। वे साहित्यसेवी भी हैं। एक बार अपनी इसी कला को लेकर मेरे यहां प्रकट हुये। मैं यकायक घबरा सा गया। वे आते ही बोले – ‘सर, आप बहुत अच्छा लिखते हैं।’ मैं समझ गया दीपक जी सांचे में उतारना शुरू कर रहे हैं। मैं बोला- ‘इसमें नया क्या है? वह तो मैं वर्षों से लिख रहा हूँ। लेकिन आप बताइये आपका इरादा क्या है?’ वे बोले – ‘इरादा क्या, मैं तो आपकी कुशलक्षेम पूछने आ गया था। हाँ, एक काम जरूर था। वह क्या है, मेरी एक कविता की पुस्तक आई है, मैं चाहता हूँ कि उसकी समीक्षा आप लिख दें ‘विहान’ के लिए।’ ‘अब आये न असली बात पर यार। भाई समीक्षा तो लिख दूंगा, लेकिन मैं पुस्तक नहीं पढ़ पाऊँगा।’ मेरे इस उत्तर से वे प्रसन्न हो गये और बोले – ‘सर, मुझे पुस्तक पढ़वानी भी नहीं है। जो मजा पुस्तक को बिना पढ़े लिखी समीक्षा में आयेगा, भला पढक़र तो पुस्तक गुड़-गोबर हो जायेगी। इसलिए आपके अवलोकनार्थ एक प्रति लाया हूँ। कृपया इसे पढ़े नहीं। बताइये मैं कब आ जाऊँ?’ वे पुस्तक-समीक्षा जल्द से जल्द लिखवा लेना चाहते थे। लेकिन मैं भी कम मैनेजर नही हँू। मैंने कहा -‘दीपक जी, आप जिस होटल में मैनेजर हैं न, मैं वहां से बीस साल पहले रिटायर हो गया हूँ। इसलिए मुझे बनाने की कोशिश न करें।
मैं समीक्षा अपनी मर्जी से लिखूंगा।’ ‘इसका मतलब आप भी मैनेज करने की कला में पारंगत हैं? माफ करना सर, इस नाचीज को भी कम न आंकिये। मैं फ्रीलांस हूँ मैनेज करने की कला में। आप तो यह कार्य आवश्यकता पडऩे पर करते हैं, मैं फुलटाइम यही जॉब करता हूँ। मुझे पता है आप पहुंचे हुए हैं। आसानी से किसी का काम नहीं करते, लेकिन मैंने आपसे समीक्षा की एक ही झटके में ‘हाँ’ करवा ली।’ दीपक जी की बात सुनकर मुझे लगा, यह काइयां है- ऐसे नहीं मानेगा। मैंने झट से पैंतरा बदला- ‘जाओ भाई, अब मैं आपकी पुस्तक की समीक्षा नहीं लिखूंगा। बताइये अब क्या करोगे?’ मेरे इस अप्रत्याशित निर्णय से उनकी आंखें बदल गई और वे बोले -‘समीक्षा तो आप और आपकी छाया दोनों लिखेंगे। ‘विहान’ में छपना आसान नहीं है। एक आर्टिकल के दो हजार मिलते हैं। मैंने सम्पादक को मैनेज कर लिया है, वह छापने को तैयार है। कहिये लिखेंगे या नहीं?’ मैं पारिश्रमिक की दरें सुनकर ठण्डा पड़ गया। धीरे से बोला-‘‘विहान’ ने कब से बढ़ाया पारिश्रमिक। पहले तो दो सौ रुपये देती थी।’ वे बोले-‘आप चालीस साल पहले की बात कर रहे हैं।’ ‘विहान’ का सर्कुलेशन तीन लाख है। एक आर्टिकल से आदमी मैंगो मैन तक पहुँच जाता है।’ मैंने कहा -‘तो छोड़ जाइये पुस्तक, मैं एक वीक में लिख दूंगा।’ दीपक जी ने पुस्तक थमाई और चलते बने। मैं फिर उनका लोहा मान गया कि वे साम, दाम, दण्ड और भेद कैसे भी करके मैनेज कर ही लेते हैं। आजकल यह कला खूब चल रही है और हजारों लोग इसी से कमा-खा रहे हैं। मैंने दीपक जी की मैनेज करने की कला को प्रणाम किया तथा तत्काल पुस्तक समीक्षा लिखने बैठ गया।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal


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