बिहार में जातिगत जनगणना

आदित्य चोपड़ा: बिहार में जातिगत जनगणना की शुरूआत हो चुकी है। हालांकि इसे जातिगत सर्वेक्षण का नाम दिया गया है। इस सर्वेक्षण में 12.7 करोड़ की जनसंख्या के 2.58 करोड़ घरों को कवर किया जाएगा, जो 31 मई को पूरा होगा। इस सर्वेक्षण पर 500 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। अब जाति जनगणना और आरक्षण को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। बि​हार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव बार-बार यह दोहरा रहे हैं कि इस सर्वेक्षण से सरकार को गरीब लोगों की मदद के लिए वैज्ञानिक तरीके से विकास कार्य करने में मदद मिलेगी। कई अन्य दलों ने भी जातिगत जनगणना की मांग समय-समय पर उठाई है। वर्ष 1931 तक देश में जातिगत जनगणना होती रही है। वर्ष 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया। वर्ष 1951 से 2011 तक जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का ब्यौरा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं। लेकिन जातिगत जनगणना के फायदे और नुक्सान में तर्क दिए जाते रहे हैं।जातीय जनगणना के फायदों को लेकर नेताओं के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ नेताओं का कहना है कि जातीय जनगणना से हमें यह पता चल सकेगा कि देश में कौन जाति अभी भी पिछड़ेपन की शिकार है। यह आंकड़ा पता चलने से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। इसके अलावा यह भी तर्क दिया जाता है कि जातीय जनगणना से किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की ​वास्तविकता का पता चल पाएगा। इससे उन जातियों के लिए विकास की योजनाएं बनाने में आसानी होगी। जातीय जनगणना के केवल फायदे ही नहीं, इसके नुक्सान भी हैं। जानकारों का मानना है कि जातीय जनगणना से देश को कई तरह के नुक्सान हो सकते हैं। इसको देखते हुए ही ​ब्रिटिश सरकार और बाद में आजाद भारत की सरकारों ने इस मांग को मानने से इंकार किया। उनका कहना है कि यदि किसी समाज को पता चलेगा कि देश में उनकी संख्या घट रही है, तो उस समाज के लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन अपनाना छोड़ सकते हैं। इससे देश की आबादी में तेजी से इजाफा होगा। इसके अलावा जातीय जनगणना से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने का खतरा भी रहता है। साल 1951 में भी तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने यही बात कहकर जातीय जनगणना के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।एक और बड़ा खतरा भी है। जातिगत जनगणना में जिसकी जितनी संख्या अधिक होगी उसकी आरक्षण में हिस्सेदारी भी ज्यादा होगी, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? ओबीसी और दलितों में भी बहुत सारी छोटी ​जाति​यां हैं, उनका ध्यान कौन रखेगा। ओबीसी की सूची केन्द्र की अलग है और कुछ राज्यों में अलग। कुछ जातियां ऐसी हैं जिनकी राज्यों में गिनती ओबीसी में होती है लेकिन केन्द्र की लिस्ट में उनकी गिनती ओबीसी में नहीं होती। उदाहरण के तौर पर बिहार में बनिया ओबीसी में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो ऊंची जाति में आते हैं। हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग-अलग है। ऐसे में जातिगत जनगणना हुई तो बवाल बढ़ सकता है। जातिगत जनगणना के विरोध में यह ठोस तर्क है कि इससे समाज में विभाजन बढ़ेगा और यह अराजकता की ओर ले जाएगा। अब जबकि जाति मुक्त समाज की कल्पना की जाती है और समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया के नारे ‘जाति तोड़ो दाम बांधो’ को याद किया जाता है। ऐसे में जातिगत जनगणना समाज को विभाजित करेगी। 

क्रेडिट : punjabkesari.com


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