रील्स की ‘बीमार’ युवा पीढ़ी

By: divyahimachal

आज हम एक सामाजिक और मनोविकारी समस्या का विश्लेषण करेंगे, जो हमारी युवा पीढ़ी को खोखला कर रही है। अमरीका के 50 राज्यों में से 42 की राज्य सरकारों ने फेसबुक, व्हाट्स एप और इंस्टाग्राम की कंपनी ‘मेटा’ के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज किया है। सोशल मीडिया के ये मंच वहां की युवा पीढ़ी को ‘बीमार’ कर रहे हैं और गुस्सैल बना रहे हैं। नतीजतन यह पीढ़ी पढ़ाई-लिखाई, कारोबार या करियर, सामाजिक-पारिवारिक जिम्मेदारियां भूलती जा रही है और हमलावर बनकर नकारापन की ओर अग्रसर है। यदि भारत के संदर्भ में आकलन करें, तो हमारी नौजवान पीढ़ी भी मोबाइल की आदी हो गई है। उसे अलग-अलग एप्स पर दुनिया भर के वीडियो, रील्स देखते रहने की लत लग गई है। भारत में करीब 38.1 करोड़ युवा 15-29 साल के वर्ग में हैं। यह पढऩे-लिखने, खेलने और एक बेहतर करियर बनाने की उम्र है। भारत को इस युवा पीढ़ी पर ही नाज और गर्व है। इसी के आधार पर भारत विश्व का सबसे ‘युवा राष्ट्र’ है। हमें इस नौजवान कार्य-बल पर गर्व और स्वाभिमान है, क्योंकि यह देश के दायित्वों को संभाल सकता है। हमारी अर्थव्यवस्था का भी बुनकर है, लेकिन मोबाइल हमारी युवा पीढ़ी को खोखला और मानसिक तौर पर अस्थिर बना रहा है। मोबाइल उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान का देश है। इस पर हम इतराते रहते हैं। भारत में औसतन 60 लाख रील्स या वीडियो हररोज बनाए जाते हैं, क्योंकि सोशल मीडिया को 40 करोड़ से अधिक भारतीय देखते या इस्तेमाल करते हैं। एक और अध्ययन के मुताबिक, करीब 45 फीसदी आबादी सोशल मीडिया की शौकीन है। रील्स को देखने या उन पर टिप्पणियां करने में औसतन युवा हररोज 3-4 घंटे खर्च करता है। ये रील्स कोई शैक्षिक या पेशेवर नहीं होतीं। ज्यादातर रील्स में कोई नाचता-गाता या अभिनय करता दिखाई देता है अथवा कोई चुटकुले सुनाता है या विभिन्न पोशाकों की प्रदर्शनी भी करता है। डेटिंग और रिलेशनशिप की रील्स की बहुत बड़ी दुनिया है।
युवाओं का शौक होना स्वाभाविक है तथा वे दोस्ती करने या अंतत: संबंध बनाने में रील्स पर बहुत वक्त लगाते हैं। कई रील्स या वीडियो अश्लील भी होते हैं। हमारी युवा पीढ़ी को मोबाइल पर रील्स या वीडियो देखने, बनाने की ऐसी लत लग गई है कि वह डिप्रेशन, चिंता, अनिद्रा, अवसाद, आंखों की बीमारियों, पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर आदि मानसिक बीमारियों की शिकार होती जा रही है। कोरोना महामारी ने भी हमें मानसिक तौर पर बीमार किया है। उसके कारण भी मामले बढ़ते जा रहे हैं। गंभीर मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के कारण अमरीकी अर्थव्यवस्था को 16 लाख करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है। भारत के संदर्भ में अभी ऐसा डाटा उपलब्ध नहीं कराया गया है। कोरोना के अलावा भी हमारे नौजवान इन मनोविकारों को आमंत्रित कर रहे हैं। भारत में युवा पीढ़ी के ऐसे व्यवहार पर लगाम लगाने को कोई कानून या आचार संहिता नहीं है। अमरीका में तो करीब 32 फीसदी युवा मानसिक बीमारियों से जूझ रहे हैं, नतीजतन गोलीबारी की घटनाएं आम हैं, लेकिन भारत में फिलहाल ऐसे सार्वजनिक अध्ययन सामने नहीं आए हैं।
अलबत्ता यह लत ऐसी लग गई है, जो सिगरेट से भी ज्यादा घातक है। युवा लोग मोबाइल को आंखों के करीब लाकर घंटों एप्स को देखते हैं, लिहाजा मोबाइल का रेडिएशन आंखों को प्रभावित करता रहता है। चीन ने तो इस संदर्भ में कानून बना दिया है कि किस आयु-वर्ग का किशोर या युवा कितने वक्त तक मोबाइल देख सकता है। यदि उसका उल्लंघन होता है, तो संबद्ध कंपनियों की जवाबदेही तय की जाती है और उन पर जुर्माना भी ठोंका जाता है। हमारा मानना है कि भारत में एक बहस या विमर्श आयोजित किया जाना चाहिए कि सोशल मीडिया कितना अनिवार्य और पेशेवर तौर पर सहायक है। भारत में भी कोई कानूनी व्यवस्था बने, क्योंकि रील्स का धंधा जानलेवा भी होता जा रहा है। रील्स बनाते हुए कई दुर्घटनाएं भी सामने आई हैं और अनहोनियां भी हुई हैं। यह बेहद संवेदनशील मुद्दा है कि क्या हम अपनी युवा पीढ़ी को बेवजह ही बीमार होने देंगे?