
बिलासपुर। नवजागरण के प्रवर्तक भारतेन्दु जी का हिन्दी साहित्याकाश में उदय पूर्णचन्द्र की भांति हुआ जिसकी शान्त, शीतल, कान्तिमयी आभा से दिग्दिगंत आलोकित हो उठती है। आज उनके 139वीं पुण्यतिथि पर दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे में उनके साहित्यिक अवदान पर ऑनलाइन संगोष्ठी आयोजित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई । इस कार्यक्रम में दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के मुख्य जनसम्पर्क अधिकारी साकेत रंजन, उप महानिरीक्षक भवानीशंकर नाथ, पूर्व उपमुख्य सुरक्षा आयुक्त कुमार निशांत, दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के पूर्व तथा उत्तरी सीमांत रेलवे के वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी विक्रम सिंह सहित बड़ी संख्या में अधिकारी एवं कर्मचारी इस कार्यक्रम से जुड़े रहे ।
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मुख्य जनसम्पर्क अधिकारी साकेत रंजन ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साहित्यिक अवदान पर अपने वक्तव्य में कहा कि आज भले ही नई हिंदी की बात हो रही है, मगर हिंदी तो नई चाल में 1873 में ढली थी और हिंदी को इस चाल में ढालने के लिए भारतेंदु को मात्र दस वर्ष का समय मिला । इन दस वर्षों में हिंदी की सेवा में भारतेंदु हरिशचंद्र ने वो रच दिया जो इतिहास बन गया । उन्होंने पहली बार हिंदी में मौलिक नाटकों की रचना की । मात्र 34 वर्ष 4 महीने की छोटी सी आयु में भारतेंदु ने भाषा, साहित्य और समाज में व्यापक परिवर्तन कर दिया । उनके सर्वाधिक चर्चित नाटक ‘भारत दुर्दशा’ में भारतेंदु ने अंग्रेजी राज की जितनी तीखी आलोचना की है उतनी ही तीखी आलोचना भारतीय जनता की भी की है । इसमें एक ओर अंग्रेजी शासन और शोषण के दृश्यह हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता के आलस्यज, अंधविश्वास, भाग्यवाद और जातिवाद की तस्वीरें भी है । इन दृश्योंर में भारत की उन्नरति के बीज छिपे हैं । मातृभाषा के महत्व को देश के प्रगति का आधार बताते हुए उन्होंने लिखा “निज भाषा के उन्नति अहै, सब उन्नति कै मूल, बीनू निज भाषा ज्ञान बिनु, मितट न हिये के शूल”
उप महानिरीक्षक भवानी शंकर नाथ ने कहा कि आधुनिक विचार ईश्वर और आस्था की जगह मानव और तर्क को केंद्र में रखता है, इसलिए इसके प्रभाव में रचा गया साहित्य लौकिक जीवन से जुड़ा होता है । भारतेंदु पर भारतीय संस्कृति के अलावा आधुनिक और पश्चिमी विचारों का भी असर था । इसलिए वे साहित्य में बुद्धिवाद, मानवतावाद, व्यक्तिवाद, न्याय और सहिष्णुता के गुण लेकर आए. उन्होंने अपनी लेखनी से लोगों में अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति प्रेम की अलख जगाने का प्रयास किया.
पूर्व उपमुख्य सुरक्षा आयुक्त कुमार निशांत ने श्रद्धांजलि के सुमन अर्पित करते हुए कहा कि 1850 के आसपास के भारत में भ्रष्टाचार, प्रांतवाद, अलगाववाद, जातिवाद और छुआछूत जैसी समस्याएं अपने चरम पर थीं । हरिश्चंद्र बाबू को ये समस्याएं कचोटती थीं । इसलिए उन्होंने इन समस्याओं को अपने नाटकों, प्रहसनों और निबंधों का विषय बनाया । वे उन चंद शुरुआती लोगों में से थे जिन्होंने साहित्यकारों से आह्वान किया कि वे इस दुनिया की खूबियों-खामियों पर लिखें न कि परलोक से जुड़ी व्यर्थ की बातों पर । अपनी मंडली के साहित्यकारों की सहायता से उन्होंने नए-नए विषयों और विधाओं का सृजन किया । कुल मिलाकर उन्होंने पुरानी प्रवृत्तियों का परिष्कार कर नवीनता का समावेश करने की कोशिश की ।
दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के पूर्व तथा उत्तरी सीमांत रेलवे के वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी विक्रम सिंह ने भाषा के तौर पर उनके अविस्मरणीय योगदान को रेखांकित करते हुए कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र का दूसरा सबसे बड़ा योगदान हिंदी भाषा को नई चाल में ढालने का माना जाता है । उनसे पहले हिंदी भाषा में दो तरह के ‘स्कूल’ चलते थे। एक राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और दूसरा राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ की फारसीनिष्ठ शैली का । हरिश्चंद्र बाबू ने इन दोनों प्रवृत्तियों का मिलन कराया । उन्होंने अपनी पत्रिका ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ में 1873 से हिंदी की नई भाषा को गढ़ना शुरू किया । इसके लिए उन्होंने खड़ी बोली का आवरण लेकर उसमें उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया. वहीं तत्सम और उससे निकले तद्भव शब्दों को भी पर्याप्त महत्व दिया । भाषा के इस रूप को हिंदुस्तानी शैली कहा गया, जिसे बाद में प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने आगे और परिष्कृत किया ।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुख्य पब्लिसिटी इन्स्पेक्टर संजय कुमार पांडेय ने पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतेन्दु के योगदान को मील का पत्थर बताया । इसके साथ ही मुख्य कार्यालय अधीक्षक टी श्रीनिवास ने उनके नाटक अंधेर-नगरी का वाचन किया ।