उपेक्षा की शिकार विरासत की बावड़ियां

अतुल कनक: कुछ बावड़ियां इतनी सम्मोहक हैं कि उनके आसपास के परिवेश में कुछ परिवर्तन करके उन्हें महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में बदला जा सकता है।भारतीय रिजर्व बैंक ने जुलाई 2018 में जब सौ रुपए का नया नोट जारी किया, तो उस पर एक ओर गुजरात की प्रसिद्ध रानी जी की बावड़ी का चित्र छापा। इस शृंखला के अलग-अलग मूल्यों के नोटों पर भारत की अलग-अलग धरोहरों के चित्र छापे गए हैं। रानी जी की वाव के नाम से प्रसिद्ध पाटन स्थित इस बावड़ी को एशिया की सबसे भव्य बावड़ी माना जाता है।

इसका निर्माण सन 1063 में राजा भीमदेव की स्मृति में उनकी पत्नी रानी उदयामति ने कराया था। बरसों तक पुरातत्त्व की यह अमूल्य धरोहर सरस्वती नदी की गाद के नीचे दबी रही। बाद में भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने इसे खोज निकाला और तब से यह हर साल लाखों पर्यटकों को आकर्षित करती है। यूनेस्को ने 22 जून, 2014 को इसे विश्व विरासत घोषित किया।

दरअसल, देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद बावड़ियां न केवल अपने समय के स्थापत्य का गौरवशाली प्रतिनिधित्व करती, बल्कि अपने निर्माण काल की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में भी जानकारी देती हैं। प्राचीनकाल में बावड़ियों को बनवाने का मूल उद्देश्य यही था कि यात्रा कर रहे लोगों या जनसामान्य को अपनी आवश्यकता का जल आसानी से उपलब्ध हो जाए। इसीलिए प्राय: यात्रा मार्गों पर, मंदिरों के बाहर, किसी सार्वजनिक स्थल के निकट बावड़ियों का निर्माण करवाया जाता था।

ये बावड़ियां कुएं या कुंडों से इस दृष्टि से अलग होती थीं कि बहुधा इनमें ऐसी व्यवस्था होती थी कि आवश्यकता महसूस होने पर व्यक्ति या पूरा कारवां कुछ समय के लिए इनमें आश्रय ले सकता था। मसलन, राजस्थान के अलवर जिले में स्थित नीमराणा की बावड़ी में आवश्यकता पड़ने पर एक पूरी सैन्य टुकड़ी को छिपाया जा सकता था। यह बावड़ी नौ मंजिला है। बावड़ियों का स्थापत्य उन्हें बनवाने वाले की आर्थिक हैसियत का भी परिचय देता है। जो लोग सामर्थ्यवान होते थे, वे भव्य अलंकरण वाली बावड़ियों का निर्माण करवाते थे।

राजस्थान के बूंदी शहर को तो ‘बावड़ियों का शहर’ ही कहा जाता है। अरावली की उपात्यकाओं में बसे इस छोटे से शहर में सत्तर भव्य बावड़ियां हैं। यहां भी एक रानी जी की बावड़ी है, जो मुख्य बाजार में स्थित है। इस बावड़ी के मध्य भाग में बने तोरणों का भव्य अलंकरण बरबस ही मन मोह लेता है। जलस्तर तक पहुंचने के लिए सौ सीढ़ियां हैं। 1984 तक यह बावड़ी उपेक्षा की शिकार थी। फिर कुछ लेखकों ने लगातार लेख लिखकर इसकी दुर्दशा की ओर जिम्मेदार लोगों का ध्यान आकर्षित किया। आज यह बावड़ी बूंदी आने वाले पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षणों में एक है। इस बावड़ी का निर्माण बूंदी के रावराजा अनिरुद्ध सिंह की रानी ने 1699 ईसवी में करवाया था।

माना जाता है कि जब शक भारत आए तो बावड़ियों के निर्माण की कला भी लाए। मगर लोक बावड़ियों के अस्तित्व को उनसे भी प्राचीन मानता है। हरियाणा के पिंजौर और उसके आसपास स्थित बावड़ियों का संबंध पांडवों से जोड़ा जाता है। मान्यता है कि अपने निर्वासन के समय एक वर्ष तक पांडव इस इलाके में रुके थे। उन्हें आशंका थी कि कौरव या उनके गुप्तचर उनके पीने के पानी में विष मिला सकते हैं, इसलिए वे रोज नई बावड़ी खोदते और उसके जल का इस्तेमाल करते थे।

इस इलाके में तीन सौ से अधिक बावड़ियां हैं। इनमें से बहुत-सी अब नष्ट हो चुकी हैं। मध्य भारत के महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल माउंट आबू में एक मंदिर की तलहटी में स्थित दूध बावड़ी के बारे में भी माना जाता है कि यह बावड़ी मंदिर में आने वाले देवताओं के लिए दूध का स्रोत थी। स्थानीय लोग इस दूध बावड़ी को दिव्य गाय कामधेनु का प्रतीक भी मानते हैं। यों इतिहासकारों का मानना है कि राजस्थान की चांद बावड़ी मौजूदा बावड़ियों में सबसे पुरानी है।

चूंकि बावड़ियों का निर्माण पुण्यकर्म माना जाता है, इसलिए उनके वास्तु आदि के बारे में भी कुछ खास नियम थे। प्राचीन ग्रंथ ‘अपराजितप्रेच्छा’ और ‘विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र’ में बावड़ियों के निर्माण के बारे में विस्तार से लिखा गया है। अपराजितप्रेच्छा के अनुसार बावड़ी में श्रीधरा, जलसांई, ग्यारह रूद्र, उमा-महेश्वर, कृष्ण, दंडपाणि, भैरव, दिक्पाल, मातृकाओं, गंगा और नवदुर्गा का निवास अवश्य होना चाहिए। यही कारण है कि मुगल काल में बनी बावड़ियों में भी इन देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को उत्कीर्ण किया गया है। माना जाता है कि इनके कारण बावड़ी नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से मुक्त रहती है। इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी था कि देवताओं की उपस्थिति के कारण लोग इन बावड़ियों को गंदा नहीं करते थे।

पुरानी दिल्ली में भी कई भव्य बावड़ियां हैं। प्राचीनकाल में बावड़ियां कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले के नरवर नगर के ऐतिहासिक किले में नल-दमयंती के महल के सामने एक तालाब स्थित है और उस तालाब के पेटे में भी आठ कुएं और नौ बावड़ियां हैं। दरअसल, तालाब के सूख जाने पर भी ये कुंए और बावड़ियां जरूरत के लिए जरूरी पानी को स्वयं में सहेजे रखते होंगे।

युद्धकाल में किलों में स्थित जलाशयों का संरक्षण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो जाया करता था, क्योंकि उस दौर में जलापूर्ति के लिए आज की तरह नल नहीं हुआ करते थे। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जब हमलावरों ने किले के अंदर जल स्रोत को इस हद तक गंदा कर दिया कि किले में बंद थोड़े से सैनिकों को मजबूरन बंद फाटक खोलकर दुश्मन की वृहत्त सेना का सामना करना पड़ा।

देवगढ़ के राजा जाटवा शाह ने तो अपनी जनता और सैनिकों के लिए देवगढ़ और उसके आसपास आठ सौ से अधिक बावड़ियों और कुंओं का निर्माण करवाया था, ताकि जल संकट के कारण उसके राज्य को किसी अप्रिय स्थिति का सामना न करना पड़े। कई बावड़ियों के एक सिरे पर मंदिर हुआ करता था। दरअसल, बावड़ियों का निर्माण करवाना पुण्य का काम माना जाता रहा है और अपना पुण्य कार्य अपने आराध्य को समर्पित करने के लिए लोग बावड़ियों के ठीक सिरहाने मंदिर का निर्माण भी करवा देते थे। यह भी होता था कि किसी वृहत्त मंदिर परिसर में जल संबंधी समस्त जरूरतों की पूर्ति के लिए एक या दो बावड़ी का निर्माण करवा दिया जाता था, ताकि भक्त, यजमान और पुजारी जल संबंधी आवश्यकताओं के लिए किसी अन्य पर आश्रित न रहें।

बावड़ियां ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, अगर उन्हें उचित संरक्षण मिले तो वे वर्षा जल संचय और भूजल स्तर को बनाए रखने में भी बड़ा योगदान कर सकती हैं। कुछ बावड़ियां इतनी सम्मोहक हैं कि उनके आसपास के परिवेश में कुछ परिवर्तन करके उन्हें महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में बदला जा सकता है। मसलन, देवगढ़ इलाके में आठ सौ बावड़ियां खुदवाई गई थीं, उनमें से पंद्रह को प्रशासन द्वारा खोज लिया गया है। प्रशासन या सरकार चाहे तो इन बावड़ियों का जीर्णोद्वार करके एक ऐसा ‘सर्किट’ बना सकती है, जिसमें लोग सभी बावड़ियों तक जा सकें।

कुछ प्राचीन बावड़ियां मंदिरों के किनारे हैं। उन्हें धार्मिक पर्यटन से जोड़ा जा सकता है। राजस्थान की आभानेरी बावड़ी, गुजरात की रानी जी की वाव इतनी विशाल हैं कि इनके अंदर सुनियोजित तरीके से विशिष्ट सांस्कृतिक मेलों की शुरुआत की जा सकती है। अभी अनेक बावड़ियों पर असामाजिक तत्त्वों ने कब्जा किया हुआ है। बावड़ियों के संरक्षण की ईमानदार पहल उन्हें पुन: जीवन की मुख्यधारा से जोड़ेगी और यह सच साबित कर देगी कि प्राचीन बावड़ियां अभी अर्थहीन नहीं हुई हैं।

क्रेडिट : jansatta.com


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